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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir .६० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुण निरूपण मोक्ष न्यायकन्दली किं पुनरात्मन: स्वरूपं येनावस्थितिमक्तिरुच्यते ? आनन्दात्मतेति केचित् । तदयुक्तम् । विकल्पासहत्वात् । स किमानन्दो मुक्तावनुभूयते वा ? न वा ? यदि नानुभूयते ? स्थितोऽप्यस्थितान्न विशिष्यते, अनुपभोग्यत्वात् । अनुभूयते चेत् ? अनुभवस्य कारणं वाच्यम् । न च कायकरणादिविगमे तदुत्पत्तिकारणतां पश्यामः । अन्तःकरणसंयोगः कारणमिति चेत् ? न, धर्माधर्मोपगृहीतस्य हि मनसः सहायत्वात्, तदखिलशुभाशुभबीजनाशोपगतं नात्मानुकल्येन वर्तते। योगजधर्मानुग्रहादात्मानमनुकूलयति चेत् ? योगजोऽपि धर्मः कृतकत्वादवश्यं विना. शीति तत्प्रक्षये मनसः कोऽनुग्रहीता ? अथ मतम्-अचेतनस्यात्मनो मुक्तस्यापि पाषाणादविशेषः, सोऽपि हि न सुखायते न दुःखायते । मुक्तोऽपि यदि तथैव, कोऽनयोविशेषः ? तस्मादस्त्यात्मनः स्वाभाविको चितिः, सा यदेन्द्रियैर्बहिराकृष्यते, तदा बहिर्मुखीभवति । यदा विन्द्रियाण्युपरतानि भवन्ति, तदा स्वात्मन्येवानन्दस्वभावे निमज्जति । आत्मा का वह कौन सा स्वरूप है जिस स्वरूप से आत्मा की स्थिति मुक्ति कहलाती है ? (इस प्रश्न का उत्तर) कुछ लोग इस प्रकार देते हैं कि वह स्थिति आत्मा की आनन्दस्वरूपता ही है । किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस पक्ष के सम्भावित कोई भी विकल्प युक्त नहीं ठहरता । (पहिला विकल्प यह है कि) मुक्तावस्था में इस आनन्द का अनुभव होता है ? अथवा नही ? यदि अनुभव नहीं होता है, तो फिर उस आनन्द का रहना और न रहना दोनों बराबर है। क्योंकि उस आनन्द का उपभोग नहीं किया जा सकता। यदि कहें कि उस आनन्द का अनुभव होता है ? तो फिर उस अनुभव का कारण कौन है.यह कहना पड़ेगा। शरीर एवं इन्द्रियादि के नष्ट हो जाने पर और किसी को उस अनुभव का कारण मानना सम्भव नहीं है । (प्र.) अन्तःकरण ( मन ) का संयोग उसका कारण होगा ? ( उ० ) सो भी सम्भव नहीं है, क्योंकि धर्म और अधर्म से प्रेरित मन ही अनुभव का सहायक है । जिसके सभी धर्म और अधर्म नष्ट हो चुके हैं, उसके मन से आत्मा को दुःख का अनुभव नहीं हो सकता। (प्र०) योगज धर्म के साहाय्य से वह मन आत्मा के अनुकूल होता है ( अर्थात् आत्मा के सुखानुभव का उत्पादन करता है)। ( उ०) किन्तु योगज धर्म भी तो उत्पत्तिशील हो है, अतः उसका भी अवश्य नाश होगा, फिर उसके नष्ट हो जाने पर मन का सहायक कौन होगा ? यदि यह कहें कि ( प्र. ) मुक्त भी हो यदि उसमें चैतन्य न रहे, तो फिर पत्थर के समान ही होगा, क्योंकि पत्थर में भी सुख दुःख की चेतनायें नहीं होती। यदि मुक्त पुरुष को भी सुख और दुःख की चेतनाओं से रहित मान लिया जाय, तो पत्थर और मुक्त आत्मा में क्या अन्तर रहेगा ? अतः यह मानना पड़ेगा कि आत्मा में एक स्वाभाविक चैतन्य होता है। वह चैतन्य जब इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों की तरफ खींचा जाता है, तब वह चैतन्य बहिर्मुख होता है (अर्थात् बाह्य विषयक ज्ञान में परिणत होता है)। जब इन्द्रियां For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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