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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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६६१
कारणान्तर
अयं हि चितेरात्मा यदि यं कश्विदवभासयति, यदि पुनरियं मुक्तावस्थायामुदास्ते, तहिं स्थितोऽप्यस्थित एव । वरमात्मा जड एव कल्प्यतामिति चेत् ? अत्रोच्यते - किं चितेरानन्दात्मता स्वाभाविकी ? जन्या वा ? न तावदवभासकारणं मुक्तावस्ति, कायकरणादीनां तत्कारणानां विलयादित्युक्तम् । स्वाभाविकी चेत् ? संसारावस्थायामप्यानन्दोऽनुभूयेत, चितिचैत्ययोरुभयोरपि सम्भवात् । अविद्याप्रतिबन्धादननुभव इति चेत् ? न, नित्यायाश्चितेरानन्दानुभवस्वभावायाः स्वरूपस्याप्रच्युतेः कः प्रतिबन्धार्थः ? प्रच्युतौ वा स्वरूपस्य का नित्यता ? तस्मान्नित्य आनन्दो नित्यया चित्या चेत्यमानो द्वयोरप्यवस्थयोरविशेषेण चेत्यते । न चैवमस्ति संसारावस्थायामुत्पन्नापवगिणो विषयेन्द्रियाधीनज्ञानस्य सुखस्यानुभवात् । अतो नास्त्यात्मनो नित्यं
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अपने व्यापार से निवृत्त हो जाती हैं, उस समय वह (चैतन्य) अपने आनन्द स्वभाव में ही निमग्न रहता हैं । चित्स्वरूप इस आत्मा का यह स्वभाव है कि किसी को भासित करे। यदि मुक्तावस्था में वह इस काम से उदासीन हो जाता है, तो फिर उस समय चैतन्य का उसमें रहना और न रहना बराबर है। इससे अच्छा है कि आत्मा को जड़ ही मान लिया जाय । इस प्रसङ्ग में हम लोगों (सिद्धान्तियों) का कहना है कि आत्मा में जो आनन्द की अभिन्नता है वह स्वाभाविक है ? या किसी दूसरे कारण से उत्पन्न होती है ? ( यदि कारणान्तरजन्य मानें तो ) मुक्तावस्था में वे कारण नहीं हैं। क्योंकि कह चुके हैं कि अवभास के कारण शरीर इन्द्रियादि का उस समय विलय हो जाता है । यदि उसको स्वाभाविक मानें तो फिर संसारावस्था में भी उसका अवभास होना चाहिए, क्योंकि उस समय भी अवभास्य और अवभासक दोनों विद्यमान हैं । ( प्र० ) संसारावस्था में अविद्या रूप प्रतिबन्धक के कारण उस आनन्द का भान नहीं होता है । ( उ० ) यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चिति नित्य है, एवं आनन्द उसका स्वरूप है, अतः चिति अपने उस आनन्द स्वरूप विच्युत हो ही नहीं सकती । फिर उक्त प्रतिबन्ध के लिए कोई अवसर ही नहीं रह जाता। यदि चिति कभी (संसारावस्था में) अपने आनन्दस्वरूपता से प्रच्युत हो सकती हैं, तो फिर वह नित्य ही नहीं रह जाएगी । तस्मात् यही कहना पड़ेगा कि आनन्द भी नित्य है, एवं नित्य चिति के द्वारा हो उसका अनुभव होता है । यदि ऐसी बात है, तो फिर संसार और अपवर्ग दोनों ही अवस्थाओं में समान रूप से नित्य आनन्द का अनुभव होना चाहिए। किन्तु सो नहीं होता क्योंकि संसारावस्था में जब तक अपवर्ग की प्राप्ति नहीं होती, तब तक विषय एवं इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान और सुख का ही अनुभव होता है । तस्मात् आत्मा का नित्यसुख नाम का कोई गुण ही अनुभव में नहीं आता । अतः आत्मा का नित्यसुख नाम का कोई गुण नहीं है । सुतराम् नित्यसुख के अनुभव की अवस्था मुक्ति नहीं है । आत्मा के सभी विशेष
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