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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६८६ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली तनिषत्तौ तत्कार्यस्य तत्त्वज्ञानस्यापि विनाशादात्मा कैवल्यमापद्यते। तत्रात्मतस्वज्ञानस्य विहितानां च कर्मणां बन्धहेतुकर्मप्रतिबन्धव्यापारादस्ति सम्भूयकारिता। शरीरादिविविक्तमात्मानं जानतश्च तदुपकारापकारावात्मन्यप्रतिसन्दधानस्याहङ्कार-ममकारयोरुपरमे सत्युपकारिण्यपकारिणि च रागद्वेषयोरभावादुदासीनस्याप्रवृत्तावनागतयोः कुशलेतरकर्मणोरसञ्चयात्, सञ्चितयोश्चोपभोगेन कर्मभिश्च परिक्षयाद् विहिताकरणनिमित्तस्य प्रत्यवायस्य च विहितानुष्ठानेनैव प्रतिबन्धात् । क्षीणे कर्मण्यैहिकस्य देहस्य निवृत्तौ कारणान्तराभावादामुहिमकस्य देहस्य पुनरुत्पत्त्यभावे सत्यात्मनः स्वरूपेणावस्थानम् । यथोक्तम् नित्यनैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् । ज्ञानं च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥ अभ्यासात् पक्वविज्ञानः कैवल्यं लभते नरः ।। इति । तथा परैरप्ययं गृहीतो मार्गः।। कर्मणा सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानेनात्मविनिश्चयः । भवेद् विमुक्तिरभ्यासात् तयोरेव समुच्चयात् ॥ इति । इस प्रकार आत्मतत्त्वज्ञान और विहितकर्मों का अनुष्ठान ये दोनों मिलकर (ज्ञानकर्मसमुच्चय ) ही बन्ध के कारणीभूत कर्मों के प्रतिरोध करने की क्षमता रखते हैं । जिस पुरुष को 'शरीरादि से आत्मा भिन्न है' इस प्रकार का ज्ञान और शरीरादि में किये गये उपकार और अपकार को आत्मा का उपकार और अपकार न समझने की बुद्धि है, उस पुरुष के अहङ्कार और ममकार का विलोप हो जाता है। फिर उपकारी के प्रति राग और अपकारी के प्रति द्वेष ये दोनों भी स्वतः निवृत्त हो जाते हैं। जिससे आत्मा की प्रवृत्ति रुक जाती है, और वह उदासोन हो जाता है। जिससे आगे पाप और पुण्य का प्रवाह रुक जाता है, और पहिले किये गये ( सञ्चित ) पापपुण्य का भोग और दूसरे कर्मों से विनाश हो जाता है। एवं विहित कर्मों के न करने से जो प्रत्यवाय होगा, उसका प्रतिरोध विहित कर्मों के अनुष्ठान से ही हो जाएगा। इस प्रकार सभी कर्मों का विनाश हो जाने पर इहलोक का शरीर तो नष्ट हो ही जाएगा, और कारणों के न रहने पर पारलौकिक शरीर भी उत्पन्न नहीं होगा। ऐसी स्थिति में आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाएगा। जैसा कहा गया है कि नित्य और नैमित्तिक कर्म के अनुष्ठान से सभी पापों को नष्ट करते हुए ज्ञान को स्वच्छ कर लेना चाहिए। इसके बाद अभ्यास के द्वारा उक्त स्वच्छ ज्ञान को परिपक्व कर लेना चाहिए । इस प्रकार अभ्यास से परिपक्व ज्ञानवाले पुरुष को ही कैवल्य प्राप्त होता है। अन्य सम्प्रदाय के लोगों ने भी इस मार्ग को अपनाया है, जैसा कि इस श्लोक से स्पष्ट है कर्म से अन्तःकरण की शुद्धि होती है और ज्ञान से आत्मा का ( साक्षात्कारात्मक) विनिश्चय होता है । इस प्रकार ज्ञान और कर्म दोनों के ही अभ्यास से मुक्ति प्राप्त होती है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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