SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 750
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम् ६७५ न्यायकन्दली परिणमति, यो द्वन्द्वेनाप्यभिभवितुं न शक्यते । दृष्टो हि किञ्चिदभिमतं विषयमादरेणानुचिन्तयतः तदेकानीभूतचित्तस्य सन्निहितेषु प्रबलेष्वपि विषयेषु संबाधः, यथेषुकार इषौ लब्धलक्ष्याभ्यासो गच्छन्तमपि राजानं न बुद्धयते । तथा च भगवान् पतञ्जलिः -- 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः' इति । एवं परिणते समाधावात्मस्वरूपसाक्षात्कारिविज्ञानमुदेति । यथाहः कापिलाः एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम्। अविपर्ययाद् विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥ इति । अत आत्मज्ञानार्थिना यतिना योगसाधनमनुष्ठीयते। ज्ञानं ज्ञेयादिप्राप्तिमात्रफलम्, श्रौतात्मज्ञानेनाप्यात्मस्वरूपं प्राप्यते, किमस्य ध्यानाभ्यासात् प्रत्यक्षीकरणेनेति चेत् ? न, परोक्षस्य प्रत्यक्षसाधने सामर्थ्याभावात् । स्वरूपतस्तावदात्मा न कर्ता, न भोक्ता, किन्तूदासीन एव । तत्र देहेप्रकार अन्तिम जन्म में वह समाधि इतनी उत्कृष्टता को प्राप्त कर लेती है कि वह पुरुष ( शीतोष्ण रूप ) द्वन्द्व से भी अभिभूत नहीं होता । यह तो सांसारिक इष्ट विषय को आदर के साथ चिन्तन करते हुए पुरुषों में भी देखा जाता है कि अत्यन्त समीप के प्रबल विषयों को भी वे नहीं देख पाते हैं। जैसे कि तोर का अभ्यास करता हुआ पुरुष आगे से जाते हुए राजा को भी नहीं देख पाता है। जैसा कि भगवान पतञ्जलि ने कहा है कि 'अभ्यास और वैराग्य इन दोनों स चित्तनिवृत्ति रूप योग निष्पन्न होता है।' इस प्रकार जब समाधि का परिपाक हो जाता है. तब उससे आत्मा का साक्षात्कार रूप विज्ञान उदित होता है। जैसा कि सांख्य शास्त्र के आचार्यों ने कहा है कि-- "इस तत्त्व के अभ्यास से 'ये विषय मेरे नहीं हैं' मैं इन विषयों से सम्बद्ध नहीं हूँ' इस आकार का विपर्य यरहित केवल (प्राकृत विषयों से असम्बद्ध) आत्मा का ज्ञान होता है।" यही कारण है कि आत्मज्ञान की इच्छा से यती लोग योग का अभ्यास करते हैं । (प्र०) ज्ञान का तो एक मात्र यही फल है कि उससे ज्ञेष विषय की प्राप्ति हो । श्रुति के द्वारा जो आत्मा का ज्ञान होता है उससे भी उसके विषय आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति तो होगी ही. फिर ध्यान और अभ्यास के द्वारा आत्मा को प्रत्यक्ष करने की क्या आवश्यकता है ? (उ०) यतः प्रत्यक्षात्मक ज्ञान से ही सांसारिक विषयो का प्रत्यक्ष रूप मिथ्याज्ञान निवृत्त हो सकता है। श्रुति से उत्पन्न आत्मा का ज्ञान परोक्ष है, अतः आत्मा के प्रत्यक्ष की आयश्यकता होती है, जिसके लिए ध्यान और अभ्यास की पूरी आवश्यकता है। आत्मा तो स्वयं उदासीन है, न वह कर्ता है, न भोक्ता। उसमें जव शरीर, इन्द्रिय प्रभृति विषयों का सम्बन्ध होता है, तभी उसे 'अहं कर्ता, अहं भोक्ता' इत्यादि ज्ञान होने लगते हैं वे 'जो जहाँ नहीं है वहीं तद्विशेषणक' होने के कारण मिथ्याज्ञान होते हैं । इस मिथ्याज्ञान से ही अनुकूल विषयों में राग और प्रतिकूल विषयों में द्वेष उत्पन्न होता है। राग और द्वेष इन दोनों से ही क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति उत्पन्न होती हैं । For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy