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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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[ गुणनिरूपणे धर्म
प्रसंख्यानात् षण्णां पदार्थानां तत्त्वज्ञानाद् योगस्यात्मज्ञानोत्पादन समर्थस्य समाधिविशेषस्य प्रसाधनमुत्पादनं प्रव्रजितस्य धर्मसाधनम् । यथैतानि धर्मं साधयन्ति, तथा कथयति - दृष्टं चेति । लाभ पूजादि प्रयोजनमनुद्दिश्यानभिसन्धाय देतानि साधनानि क्रियन्ते, तदेतानि साधनानि भावप्रसादं चाभिप्रायविशुद्धि चापेक्ष्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्मोत्पत्तिरिति ।
प्रत्यहं दु:खैरभिहन्यमानस्य तत्त्वतो विज्ञातेषु दुःखेकनिदानेषु विषयेषु विरक्तस्यात्यन्तिकं दुःखवियोगमिच्छतः "आत्मख्यातिरविप्लवा हानोपायः " 'तस्याश्च समाधिविशेषो निबन्धनम्' इति श्रुतवतः "संन्यस्य सर्वकाम्यकर्माणि समाधिमनुतिष्ठामः" तत्प्रत्यनीकभूयिष्ठं ग्रामं परित्यज्य वनमाश्रितस्य यमनियमाभ्यां कृतात्मसंस्कारस्य समाध्यभ्यासान्निवर्त्तको धर्मो जायते । तस्मादस्य प्रकृष्टः समाधिस्ततोऽन्यः प्रकृष्टतरो धर्मः, तस्मादप्यन्यः प्रकृष्टतमः समाधिरित्यनेन क्रमेणान्त्ये जन्मनि स तादृशः समाधिविशेषः
पुरुषों के लिए ये आचरण धर्म के साधन हैं । 'षट्पदार्थ प्रसंख्यानात् ' द्रव्यादि छः पदार्थों के तत्वज्ञान के द्वार योग का अर्थात् आत्मज्ञान में पूर्ण क्षम विशेष प्रकार के समाधि का जो उत्पादन वह 'प्रत्रजितों' के लिए धर्म का साधन है । 'दृष्टञ्च' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा यह उत्पादन करते हैं कि ये साधन किस प्रकार धर्म का सम्पादन करते हैं । अर्थात् 'दृष्ट' लाभ पूजादि प्रयोजनों का उद्देश्य न रखकर जब यमनियमादि साधनों का अनुष्ठान किया जाता है, उस समय ये साधन 'भावशुद्धि' अर्थात् अभिप्राय की विशुद्धि के साहाय्य से आत्मा और मन के संयोग के द्वारा धर्म का उत्पादन करते हैं |
जिस पुरुष का चित्त दुःखों से प्रतिदिन अभिहत होता रहता है, उसे यदि दुःखों के कारणीभूत विषय यथार्थ रूप से ज्ञात हो जाते हैं तो फिर उन विषयों से उसे वैराग्य हो जाता है | ऐसा पुरुष दुःखों से सदा के लिए छूटने की इच्छा करता है । (अन्वेषण करने पर ) उसे यह ज्ञात होता है कि 'आत्मा का तत्त्वज्ञान ही दुःख के आत्यन्तिक निवृत्ति का अर्थ साधन है, एवं वह तत्त्वज्ञान विशेष प्रकार की समाधि' से ही प्राप्त हो सकता है । तो फिर सभी काम्य कर्मों का त्याग कर मैं समाधि का ही अनुष्ठान करूँ वह ऐसा संकल्प करता है । फिर समाधि के अधिकतर विघ्नों
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युक्त होने के कारण वह ग्राम को छोड़ देता है, और वन का आश्रय ले लेता है । ऐसा पुरुष यम और नियम से आत्मा को सुसंस्कृत कर लेता है । ऐसी स्थिति में जब वह समाधि का अभ्यास करता है, तो उससे ( संसार को निबृत्त करनेवाले ) निवर्त्तक धर्म की उत्पत्ति होती है । इस निवर्त्तक धर्मं के द्वारा पहिले की समाधि से उत्कृष्ट समाधि की उत्पत्ति होती है ।। इस उत्कृष्ट समाधि से उत्पन्न निवर्तक धर्म से उत्कृष्टतर निवर्त्तक धर्म की उत्पत्ति होती है । इस उत्कृष्ट निवर्त्तक धर्म से उत्कृष्टतम समाधि की उत्पत्ति होती है, इस