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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६७६ www.kobatirth.org न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गुणनिरूपणे धर्म न्द्रियसम्बन्धाद्युपाधिकृतोऽहं ममेति कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रत्ययो मिथ्याऽतस्मिंस्तदिति भावात् । एतत्कृतश्चानुकूलेषु रागः प्रतिकूलेषु द्वेषः ताभ्यां प्रवृत्तिनिवृत्ती, ततो धर्माधर्मे, ततश्च संसारः । यथोक्तं सौगतैः आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ । अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे भावाः प्रजायन्ते || अनादिवासनावासित इति प्रबलो निसर्गबद्धः सर्वः सांव्यवहारिकः प्रत्यक्षेणैवैष प्रत्ययः । श्रीतमात्मतत्त्वज्ञानं क्षणिकमनुपलब्धसंवादं परोक्षं च । न च दृढतरः प्रत्यक्षावभासः परोक्षावभासेन शक्यते निषेद्धुम् । नहि शतशोऽपि प्रमाणान्तरावगते गुडस्य माधुर्ये दुष्टेन्द्रियजः तिक्तप्रतिभासस्तत्कृतश्च दुःखावगमो निवर्तते तस्मात् प्रत्यक्षज्ञानार्थं समाधिरुपासितव्यः । प्रचिते समाधौ तत्सामर्थ्यात् कर्त्तृत्वभोक्तृत्वपरिपन्थिन्यात्मतत्त्वे स्फुटीभूते समाने विषये विद्याविद्ययोविरोधादहङ्कार-ममकारवासनोच्छेदे सन्नपि प्रपञ्चो नात्मानं स्पृशति । तथा च कापिलैरुक्तम् तेन निवृत्तप्रसवार्थवशात् सप्तरूपविनिवृत्तौ । प्रकृतिं पश्यति पुरुषः प्रेक्षकवदवस्थितः स्वस्थः ॥ For Private And Personal विहित विषयों में प्रवृत्ति से धर्म और निषिद्ध विषयों की प्रवृत्ति से अधर्म, एवं विहित विषयों की निवृत्ति से अधर्म और निषिद्ध विषयों की निवृत्ति से धर्म की उत्पत्ति होती है । धर्म और अधर्म इन्हीं दोनों से संसार की उत्पत्ति होती है । जैसा बौद्धों ने भी कहा है किआत्मा को सत्ता मान लेने पर ही 'पर' इस नाम का व्यवहार होता है । 'स्व' और 'पर' का जो यह व्यवहार है, उसी से राग और द्वेष उत्पन्न होता है | धर्माधर्मादि सभी भाव राग और द्वेष इन्हीं दोनों के साथ सम्बद्ध हैं । अनादि वासना से वासित होने के कारण ये सभी स्वाभाविक मिथ्याप्रत्यय संवृति (अविद्या) से उत्पन्न होते हैं, एवं वे प्रत्यक्षात्मक हैं। श्रुति से जो आत्मा का क्षणिक ज्ञान होता है, उसका प्रमात्व निर्णीत नहीं है, एवं वह परोक्ष भी है । अतः उससे दृढ़तर एवं प्रत्यक्षात्मक मिथ्याज्ञान की निवृत्ति नहीं हो सकती । जिस पुरुष की जिह्वा में दोष आ गया है, उसे यदि सैकड़ों प्रमाणों से गुड़ की मधुरता को समझावें, उससे उसे जो गुड़ में तिक्तता का भान है, एवं इस भान से जो दुःख होता है, इन दोनों से वह छूट नहीं सकता । तस्मात् आत्मा के प्रत्यक्ष के लिए समाधि की पूरी आवश्यकता । इस प्रकार समाधि की वृद्धि हो जाने पर, उसके सामर्थ्य से ( बन्धन के प्रयोजक ) कर्तृत्व और भोक्तृत्व के विरोधी आत्मतत्त्व का स्फुट प्रतिभास होता है । तद्विषयक मिथ्याज्ञान ( अविद्या ) और तद्विषयक यथार्थज्ञान ( विद्या ) ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, अतः आत्मविषयक तत्त्वज्ञान रूप विद्या की उत्पत्ति हो जाने पर आत्मा का कर्तृत्व भोक्तृत्वादि रूप से जितने भी मिथ्याज्ञान एवं तज्जनित वासनायें रहतीं हैं, वे सभी नष्ट हो जातीं हैं, जिससे प्रपश्व की ( किसी प्रकार की ) सत्ता
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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