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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे धर्म प्रशस्तपादभाष्यम् तत्र सामान्यानि-धर्मे श्रद्धा, अहिंसा, भूतहितत्वम्, सत्यवचनम्, अस्तेयम्, ब्रह्मचर्यम् अनुपधा, क्रोधवर्जनमभिषेचनम्, शुचिद्रव्यसेवनम्, विशिष्टदेवतामक्तिरुपवासोऽप्रमादश्च । उन ( सामान्यधर्मों के और विशेषधर्मों के साधनों ) में धर्म में श्रद्धा, अहिंसा, प्राणियों का उपकार, सत्यवचन, अस्तेय ( दूसरे की वस्तु को विना उसकी आज्ञा के न लेना) ब्रह्मचर्य, दूसरे को ठगने की अनिच्छा ( अनुपधा ) अक्रोध, स्नान, पवित्रवस्तुओं का सेवन, इष्ट देवता में भक्ति, उपवास और अप्रमाद ये ( १३ ) सभी वर्गों और सभी आश्रमियों क लिए समान रूप से धर्म के साधन हैं। न्यायकन्दली द्रोहसंकल्पस्य विहितत्वात् स्यादेव धर्मसाधनम् । भूतहितत्वं भूतानामनुग्रहः । सत्यवचनं यथार्थवचनम् । अस्तेयमशास्त्रपूर्वकं परस्वग्रहणं मया न कर्तव्यमिति संकल्पः, न तु परस्वादाननिवृत्तिमात्रमभावरूपम्। ब्रह्मचर्यम् स्त्रीसेवापरिवर्जनम् । एतदपि संकल्परूपम् । अनुपधा भावशुद्धिः, विशुद्धनाभिप्रायेण कृतानां कर्मणां धर्मसाधनत्वात् । क्रोधवर्जनं क्रोधपरित्यागः, सोऽपि संकल्पात्मक एव । अभिषेचनं स्नानम् । शुचिद्रव्यसेवनं शुचीनां तिलादिद्रव्याणां क्वचित् पर्वणि नियमेन सेवनं धर्मसाधनम् । विशिष्टदेवताभक्तिः त्रयीसंमतायां देवतायां भक्तिरित्यर्थः। उपवास एकादश्यादिभोजननिवत्तिसंकल्पः। अप्रमादो नित्यनैमित्तिकानां कर्मणामवश्यम्भावेन करणम् । एतानि सर्वषामेव समानानि है। द्रोह न करने का कथित जो संकल्प है उससे अवश्य ही धर्म उत्पन्न होगा. क्योंकि उसका विधान किया गया है। 'भूतहितत्व' शब्द से प्राणियों के प्रति अनुग्रह अभीष्ट है। 'सत्यवचन' शब्द का अर्थ है सच बोलना । 'दूसरे व्यक्ति के जिस धन क लेना शास्त्र में विहित नहीं है, वह धन मुझे नहीं लेना चाहिए' इस प्रकार का संकल्प ही 'अस्तेय' है। अस्तेय शब्द से दूसरे के धन का न लेना' केवल यह अभावरूप अर्थ नहीं है। 'ब्रह्मचर्य' शब्द का अर्थ हैं, 'स्त्री से उपभोगसम्बन्ध का परित्याग' यह भी संकल्प रूप ही है। 'अनुपधा' शब्द से 'अभिप्रायशुद्धि' अभीष्ट है, यत: विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अनुष्ठित कर्म ही धर्म के कारण हैं। 'क्रोधवर्ज।' है क्रोध का परित्याग, यह भी संकल्प रूप ही है । 'अभिधेचन' है स्नान । शुचिद्रव्य का सेवन' अर्थात् किसी विशेष पर्व में तिल प्रभृति पत्रि द्रव्यों का सेवन धर्म का कारण है । 'विशिष्ट देवता में भक्ति' अर्थात् तीनों वेदों के द्वारा प्रतिपादित किसी देवता में भक्ति । 'उपवास' शब्द से एकादशी प्रभृति विशेष तिथियों में भोजन न करने का संकल्प अभिप्रत है। 'अप्रमाद' शब्द का अर्थ है, 'नित्य एवं नैमित्तिक कर्मो का अवश्य अनुष्ठान करना' ये सभी वर्गों और सभी आश्रमों के व्यक्तियों के लिए धर्म के साधन हैं। 'इज्या' शब्द For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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