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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६५ नित्यं धर्ममाहुस्तेषां प्रायेणानुपपत्तिः, धर्माधर्मक्षयाभावात् । पुरुषान्तःकरणेति । आत्मविशेषगुणत्वात् सुखादिवत् । विशुद्धेति । विशुद्धोऽभिसन्धिः दम्भादिरहितः संकल्पविशेषः, तस्माद्धर्मो जायते । वर्णाश्रमिणामिति । वर्णा ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः । आश्रमिणो ब्रह्मचारिगृहस्थवानप्रस्थयतयः । तेषां धर्मः प्रतिवर्णं प्रत्याश्रमं चाधिकृत्य विहितः साधनैर्जन्यत इत्यर्थः । अतीन्द्रियस्य धर्मस्य साधनानि कुतः प्रत्येतव्यानि, तत्राहतस्य त्विति । विशिष्टेनानुष्ठानेनाचार्यमुखाच्छ्रयत एव न लिखित्वा गृह्यत इति श्रुतिवेदः, स्मृतिर्मन्वादिवाक्यम्, ताभ्यां विहितानि प्रतिपादितानि वर्णाश्रमिणां सामान्यविशेषभावेनावस्थितानि द्रव्यगुणकर्माणि सामान्यानि धर्मसाधनानि । तत्र सर्वेषां वर्णाश्रमिणां च सामान्यरूपतया धर्मसाधनानि कथ्यन्ते । धर्मे श्रद्धा धर्मे मनःप्रसादः | अहिंसा भूतानामनभिद्रोहसंकल्पः । प्रतिषिद्धस्याभिद्रोहस्य निवृत्तेरधर्मो न भवति, न धर्मो जायते । अनभि For Private And Personal है (अवान्तर सुख नहीं ) संविज्ञान अर्थात् सम्यग् विज्ञान ( तत्त्वज्ञान ) से भी धर्म का नाश होता है । जो कोई धर्म को नित्य मानते हैं, उनके मत में मोक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि उसके लिए धर्म और अधर्म दोनों ही का विनाश आवश्यक है, जो धर्म को नित्य मानने से सम्भव नहीं है । 'पुरुषान्त:करणेति' ( धर्मं पुरुष और अन्तःकरण के संयोग से उत्पन्न होता है क्योंकि ) वह भी सुखादि की तरह आत्मा का विशेषगुण है । विशुद्धेति' विशुद्ध जो अभिसन्धि अर्थात् दम्भादि से रहित जो विशेष प्रकार का संकल्प, उससे धर्म की उत्पत्ति होती है । 'वर्णाश्रमिणामिति' 'वर्ण' शब्द से ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र अभिप्रेत हैं । 'आश्रमी' हैं-- ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थो और संन्यासी । अर्थात् इन सबों के तथ्यतः प्रत्येक वर्ष के मनुष्यों के लिए एवं प्रत्येक आश्रम के मनुष्यों के लिए शास्त्रों में विहित जो साधन हैं, उनसे धर्म की उत्पत्ति होती है । धर्म तो अतीन्द्रिय है, फिर उसके कारणों का ज्ञान कैसे होगा ? इसी प्रश्न का उत्तर 'तस्य तु' इत्यादि से दिया गया है। विहित विशेष प्रकार के अनुष्ठान से आचार्य के मुख से जिसे सुना हो जाता है, अर्थात् जिसका लिप्यादि से ज्ञान नहीं होता, वही है 'श्रुति' अर्थात् वेद । 'स्मृति' शब्द से मन्वादि ऋषियों के वाक्य अभिप्रेत हैं। श्रुति और स्मृति इन दोनों से 'विहित' अर्थात् प्रतिपादित जो सभी वर्गों और सभी आश्रमवाले पुरुषों के लिए सामान्यभाव और विशेषभाव से स्थित द्रव्य, गुण और क्रिया, वे सभी धर्म के सामान्य साधन हैं। इनमें सभी वर्णों और सभी आश्रमियों के लिए समान रूप से जो धर्म के साधन हैं, उनका निरूपण 'धर्म' श्रद्धा' इत्यादि से करते हैं। धर्म के प्रसङ्ग में चित्त की प्रसन्नता ही धर्म में श्रद्धा है। सभी प्राणियों प्रति द्रोह न करने का संकल्प अहिंसा हैं । जो द्रोह निषिद्ध हैं, उस द्रोह के न करने से इतना ही होता है कि 'अधर्म' नहीं होता । किन्तु उससे धर्म की उत्पत्ति नहीं होती
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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