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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६६२ यथोक्तम् www.kobatirth.org न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गुणनिरूपणे धर्म फलाय विहितं कर्म क्षणिकं चिरभाविने । तत्सिद्धिर्नान्यथेत्येतदपूर्वमपि कल्प्यते ॥ अत्रोच्यते । न कर्मसामर्थ्यं क्षणिके कर्मणि समवैति, शक्तिमति विनष्टे निराश्रयस्य सामर्थ्यस्यावस्थानासंभवात् । स्वर्गादिकं च फलं तदानीमनागतमेव, न शक्तेराश्रयो भवितुमर्हति । यदि त्वनुष्ठानानन्तरमेव स्वर्गो भवति ? अपूर्वकल्पनावैयर्थ्यम्, तदुपभोगश्च दुर्निवारः । विशिष्टशरीरेन्द्रियादिविरहादननुभवश्चेत् ? तर्ह्ययं तदानीमनुपजात एव स्वर्गस्योपभोग्यैकस्वभावत्वात् । अनुपभोग्यमपि सुखस्वरूपमस्तीति अदृष्टकल्पनेयम् । तस्मान्न फलाश्रयमपूर्वम् । न चाकाशादिसमवेतादपूर्वादात्मगामिफलसम्भवः । वस्तुभूतं च कार्यमनाधारं नोपपद्यते, तस्मादात्मसमवेतस्यैव तस्योत्पत्तिरभ्यनुज्ञेया । तथा सति न तत्कर्मसामथ्यं स्यात्, अन्यसामर्थ्यस्यान्यत्रासमवायात् । अथान्यस्याप्यन्यसमवेता शक्तिरिष्यते, तस्याः कार्यानुमेयत्वादिति चेत् ? For Private And Personal जैसा कहा गया है कि 'बहुत दिनों बाद होनेवाले स्वर्गादि फलों के लिए जो क्षण मात्र रहनेवाले यागादि का विधान किया गया है, वह विधान तब तक उपपन्न नही हो सकता, जब तक कि 'अपूर्व' की कल्पना न कर ली जाय । अतः 'अपूर्व' को कल्पना करते हैं । ( उ० ) इस प्रसङ्ग में हम लोगों का कहना है कि यह कर्म का सामर्थ्य रूप अपूर्वं ( जिसे स्वर्गसाधत पर्यन्त रहना है ) यागादि क्रियाओं में तो रह नहीं सकता, क्योंकि क्षणिक हैं । अतः उनके नाश हो जाने पर बिना आश्रय के अपूर्व ( स्वर्गोत्पादन पर्यन्त ) की अवस्थिति ही सम्भव नहीं है । स्वर्गादि फल भी अपूर्व के आश्रय नहीं हो सकते, क्योंकि अपूर्व की उत्पत्ति के समय स्वर्गादि भविष्य के गर्भ में ही रहते हैं । यदि यागादि के अनुष्ठान के तुरंत बाद ही स्वर्गादि को उत्पत्ति ( आश्रय को उपपन्न करने के लिए ) मानें, तो उनका उपयोग भी ( उसी समय ) मानना पड़ेगा | यदि ऐसा कहें कि उस समय ( यागादि के अनुष्ठान के तुरंत बाद ) स्वर्गादि भोगों के उपयुक्त शरीर या इन्द्रियां नहीं हैं इसी से स्वर्ग की उत्पत्ति नही होती है, तो फिर यही मानना पड़ेगा कि स्वर्गादि उस समय उत्पन्न ही नहीं होते, क्योंकि स्वर्गादि उपभोगस्वभाव के ही हैं । यह कल्पना अभूतपूर्व होगी कि स्वर्ग की सत्ता तो उस समय भौ है, किन्तु वह स्वर्ग उपभोग्य नहीं है । यह भी सम्भव नहीं है कि ( पुरुष से भिन्न ) आकाशादि कोई भी वस्तु उसके आश्रय हों, क्योंकि आकाशादि में रहनेवाले अपूर्व से आत्मा में स्वर्ग की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यह भी सम्भव नहीं है कि अपूर्व रूप कार्य की उत्पत्ति बिना आश्रय के ही हो, क्योंकि वह भावरूप कार्य है । अतः अपूर्व को यदि मानना है, तो उसकी उत्पत्ति आत्मा में ही माननी पड़ेगी । यदि ऐसा कहें कि ( प्र० ) हम यह भी मान लेंगे कि एक वस्तु की ऐसी भी शक्ति हो सकती है, जो समवाय सम्बन्ध से दूसरी वस्तु में रहे, क्योंकि शक्ति की सत्ता तो उससे उत्पन्न कार्यरूप
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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