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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
६६१ न्यायकन्दली इति व्याख्येयम् । न तु कर्तुरेव यः प्रियादिहेतुः स धर्म इति व्याख्या, पुत्रेण कृतस्य श्राद्धस्य पितृगामितृप्तिफलश्रवणात् । वृष्टिकामेन कारीयाँ कृतायां तदन्यस्यापि समीपदेशतिनो वृष्टिफलसम्बन्धदर्शनात् ।
स्वर्गकामो यजेतेत्यादिवाक्ये यागेन स्वर्ग कुर्यादिति कर्मणः श्रेयःसाधनत्वं श्रूयते। यश्च निःश्रयसेन पुरुषं संयुनक्ति स धर्मः, तस्माद् यागादिकमेव धर्मः, न पुरुषगुणः । तथा हि, यो यागमनुतिष्ठति तं धार्मिकमित्याचक्षते । एतदयुक्तम् । क्षणिकस्य कर्मणः कालान्तरभाविफलसाधनत्वासम्बन्धात् । अथोच्यते। क्षणिकं कर्म, कालान्तरभावि च स्वर्गफलम्, विनष्टाच्च कारणात् कार्यस्यानुत्पत्तिः, श्रुतं च यागादेः कारणत्वम्, तदेतदन्यथानुपपत्या फलोत्पत्त्यनुगुणं किमपि कालान्तरावस्थायि कर्मसामयं कल्प्यते, यवारेण कर्मणां श्रुता फलसाधनता निर्वहति। तच्च प्रमाणान्तरागोचरत्वादपूर्वमिति व्यपदिश्यते।
प्रियहितमोक्ष हेतुः' इस वाक्य की व्याख्या इस रीति करनी चाहिए कि (धर्मजनक क्रियाओं के ) कर्ता के 'प्रियादि' का जो हेतु वही 'धर्म' है । इस प्रकार की व्याख्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पुत्र के द्वारा अनुष्ठित श्राद्धरूप क्रिया से पिता में ही प्रीतिरूप फल का होना शास्त्रों में उपलब्ध होता है। एवं वृष्टि की कामना से 'कारीरी' नाम के याग के अनुष्ठान से जो वृष्टिरूप फल उत्पन्न होता है, उससे याग करनेवाले और उनके समीप के और लोग भी प्रीति का लाभ करते हैं ।।
(प्र. ) 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि वाक्यों से याग' के द्वारा स्वर्ग का सम्पादन करना चाहिए' इस प्रकार यागादि श्रेय कर्म ही स्वर्गादि इष्टों के साधक के रूप में सुने जाते हैं। 'धर्म' उसी का नाम है जो पुरुष को श्रेयस् के साथ सम्बद्ध करे । तस्मात् यागादि कर्म ही धर्म हैं, धर्म जीव का गुण नहीं है । एवं जो यागादि कर्मों का अनुष्ठान करता है उसे ही लोग 'धार्मिक' कहते भी हैं ।
( उ० ) किन्तु यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि कर्म क्षण भर ही रहते हैं, उनसे बहुत काल बाद होनेवाले स्वर्गादि का सम्पादन सम्भव नहीं है। यदि यह कहें कि (प्र०) यागादि क्रियायें क्षणिक हैं। उनके स्वर्गादि फल उनसे बहुत समय बाद होते हैं। यह भी निर्णीत है कि विनाश को प्राप्त हुए कारणों से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है। फिर भी यागादि क्रियाओं में स्वर्गादि फलों की हेतुता वेदों से श्रुत है। किन्तु यह हेतुता तब तक उपपन्न नहीं हो सकती, जब तक की यागादि के बाद और स्वर्गादि की उत्पत्ति से पहिले तक रहनेवाले किसी व्यापार की कल्पना न कर लें, जिससे यागादि में वेदों के द्वारा श्रुत स्वर्गादि जनकता का निर्वाह हो सके। वही व्यापार और किसी प्रमाण के द्वारा गम्य न होने के कारण 'अपूर्व' कहलाता है।
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