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६६.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे धर्म
प्रशस्तपादभाष्यम् धर्मः पुरुषगुणः। कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुः, अतीन्द्रियोऽन्त्यसुखसंविज्ञानविरोधी पुरुषान्तःकरणसंयोगविशुद्धाभिसन्धिजः, वर्णाश्रमिणां प्रतिनियतसाधननिमित्तः। तस्य तु साधनानि श्रतिस्मृतिविहितानि वर्णाश्रमिणां सामान्यविशेषभावेनावस्थितानि द्रव्यगुणकर्माणि ।
धर्म पुरुष (जीवात्मा ) का गुण है। वह अपने उत्पादक जीव के प्रिय, हित और मोक्ष का कारण है, एवं अतीन्द्रिय है। अन्तिम सुख और तत्त्वज्ञान इन दोनों से इसका नाश होता है। पुरुष और अन्तःकरण ( मन ) के संयोग और संकल्प इन दोनों से इसकी उत्पत्ति होती है। वर्णों और आश्रमियों के लिए विहित कर्म ( भी ) उसके साधन हैं। वेद एवं धर्मशास्त्रादि ग्रन्थों में वर्णों और आश्रमियों के साधारण धर्मों और विशेषधर्मों के साधन के लिए कहे गये द्रव्य, गुण और कर्म भी इसके कारण हैं।
न्यायकन्दली यानि सूत्रादीनि संवतितानि तेष्विति व्याचक्षते । तस्य नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयो गुरुत्ववत् । यथा गुरुत्वं परमाणुषु नित्यं कार्येष्वनित्यं कारणगुणपूर्वकं च, तथा स्थितिस्थापकोऽपीत्यर्थः ।
धर्मः पुरुषेति। यो धर्मः, स पुरुषस्य गुणो न कर्मसामर्थ्यमित्यर्थः । कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुः । प्रियं सुखम्, हितं सुखसाधनम्, मोक्षो नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदस्तेषां हेतुः । कर्तुः प्रियादीनामेव यो हेतुः स धर्म मानते हैं, (तदनुसार इस वाक्य का ऐसा अर्थ करते हैं ) कि संवत्तित जो सूत्रादि, उनमें रहनेवाला संस्कार ही 'स्थितिस्थापक संस्कार' है। 'तस्य नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयो गुरुत्ववत्' अर्थात् जैसे कि परमाणुओं में रहनेवाला गुरुत्व नित्य है, एवं कार्यद्रव्यों में रहनेवाला गुरुत्व अनित्य है, उसी प्रकार 'स्थितिस्थापक संस्कार' को भी समझमा चाहिए। ( अर्थात् परमाणुओं में रहनेवाला स्थितिस्थापक संस्कार नित्य है, एवं कार्यद्रव्यों में रहनेवाला अनित्य)।
___ 'धर्मः पुरुषेति' । अर्थात् धर्म (नाम का) जो गुण है वह 'पुरुष' का अर्थात् जीव का ही गुण है, ( ज्योतिष्टोमादि) क्रियाओं का शक्तिरूप नहीं है। 'कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुः' ( इस वाक्य में प्रयुक्त ) प्रिय शब्द का अर्थ है सुख, 'हित' शब्द सुख के साधनों को समझाने के लिए लिखा गया है, एवं 'मोक्ष' शब्द जीव के बुद्धि प्रभृति नौ विशेषगुणों का अत्यन्त विनाश रूप अर्थ का बोधक है। इन सबों का हेतु ( ही 'धर्म' है )। 'कर्तुः
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