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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] यथोक्तम् www.kobatirth.org भाषांनुवादसहितम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शक्तिः कार्यानुमेया हि यद्गतैवोपलभ्यते । तद्गतैवाभ्युपेतव्या स्वाश्रयान्याश्रयापि च ॥ इति । ६६३ कारणत्व तदयुक्तम् । विनष्टे शक्तिमति तन्निरपेक्षस्य शक्तिमात्रस्य कार्यजनक - त्वानुपलम्भादेव । तेनैतदपि प्रत्युक्तम् । यदुक्तं मण्डनेन विधिविवेके - " तदाहितत्वात् तस्य शक्तिरिति" यागेनाहितत्वादपूर्वं यागस्य कार्यं स्यान्न तु शक्तिः, अपूर्वोपकृतात् कर्मणः फलानुत्पत्तेः, तस्माच्चिरनिवृत्ते कर्मणि देशकालावस्थादिसहकारिणोsपूर्वादेव फलस्योत्पत्तेरपूर्वमेव श्रेयः साघनम् । श्रुतिस्तु यागादरपूर्वजननद्वारेण न साक्षादिति प्रमाणानुरोधादाश्रयणीयम् । तथा सति युक्तं धर्मः पुरुषगुण इति । योऽपि यागादौ धर्मव्यपदेशः, सोऽप्यपूर्वसाधनतया प्रीतिसाधन इव स्वर्गशब्दप्रयोगः । स्वर्गसाधने हि चोदितस्य ज्योतिष्टोमस्य निरन्तरं प्रीतिसाधनतयार्थवादेन स्तुतेश्चन्दनादौ च प्रीतियोगे सति प्रयोगात्, तदभावे चाप्रयोगात्, प्रीतिनिबन्धनः स्वर्गशब्दः, । For Private And Personal लिङ्ग के द्वारा ही अनुमित हो सकती है । जैसा कहा गया है कि " कार्यरूप हेतु से अनुमित होनेवाली शक्ति जहाँ जिस आश्रय में उपलब्ध होगी, उसी में उसकी सत्ता माननी पड़ेगी" अतः उस कारण को शक्ति उसी कारण में ही रहेगी, कभी उससे भिन्न आश्रय में नहीं रह सकती । उ० ) किन्तु यह भी अयुक्त ही है, क्योंकि शक्ति के आश्रय का विनाश हो जाने पर उस आश्रय से सर्वथा निरपेक्ष केवल शक्ति से कार्य की उत्पत्ति की उपलब्धि नहीं होती है। आगे कहे हुए इस समाधान से आचार्य मण्डन मिश्र की विधिविवेक ग्रन्थ की यह उक्ति ( याग से ) जिस लिए कि 'उसका' अपूर्व का शक्ति कहलाती है ।" क्योंकि याग से 'आहित' भी खण्डित हो जाती हैं कि "उससे आधान होता है, अतः 'अपूर्व' याग की अर्थात् उत्पन्न होने के कारण अपूर्व याग से उत्पन्न हुआ कार्य है । अपूर्व याग की शक्ति नहीं है, क्योंकि ऐसी बात नहीं है कि अपूर्व याग का साहाय्य याग से ही स्वर्ग की उत्पत्ति होती है, और इस उत्पादन कार्य में करता है ( क्योंकि स्वर्ग की उत्पत्ति के अव्यवहित पूर्व क्षण में याग की सत्ता ही नहीं है, फिर अपूर्व किसका साहाय्य करेगा ? ) 1 तस्मात् यही कहना पड़ेगा कि यागादि कर्मों के नाश हो जाने के बहुत पीछे उनसे उत्पन्न अपूर्व से ही स्वर्गादि फलों की उत्पत्ति होती है, जिसमें उसे उपयुक्त देश कालादि का भी सहयोग प्राप्त होता है । अतः प्रमाण के द्वारा इसी पक्ष का अवलम्बन करना पड़ेगा कि अपूर्व ही स्वर्गादि श्रेयों का साक्षात् कारण है । यागादि क्रियाओं में जो स्वर्गादि फलों के हेतुत्व की चर्चा श्रुतियों में है वह हेतुता 'अपूर्व का उत्पादक होने से परम्परया यागादि भी स्वर्गादि के साधन हैं, इसी अभिप्राय से समझना चाहिए। तस्मात् भाष्य की यह उक्ति ठीक है कि 'धर्म पुरुष काही गुण है' । यागादि क्रियाओं में जो 'धर्म' शब्द का व्यवहार होता है, उसे अपूर्व या धर्म के साधनरूप अर्थ में लाक्षणिक समझना चाहिए। जैसे कि प्रीति के चन्दन
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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