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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् नुग्रहाभिष्वङ्गनयनादिप्रसादजनकमुपद्यते तत् सुखम् । अतीतेषु विषयेषु स्मृतिजम् । अनागतेषु ङ्कल्पजम् । यत्तु विदुषामसत्सु इष्ट विषयों का ज्ञान, उन विषयों के साथ ( त्वक् घ्राणादि ) इन्द्रियों के संनिकर्ष, एवं धर्म से साहाय्य प्राप्त आत्मा और मन के संयोग इन सबों से धर्म की उत्पत्ति होती है। यह ( सुख स्वविषयक ज्ञान रूप ) अनुग्रह, अनुराग एवं नयन ( मुख ) प्रभृति की विमलता इन सबों का कारण है। बीते हुए विषयों का सुख उन विषयों की स्मृति से उत्पन्न होता है, एवं होनेवाले न्यायकन्दली नमिन्द्रियजं तदा प्रत्यक्षम् । अथेन्द्रियानपेक्षं तदार्षमित्यर्थः । उपसंहरति-एवं बुद्धिरिति । एवमनन्तरोक्तेन क्रमेण । बुद्धिरिति बुद्धिाख्यातेत्यर्थः । इतिशब्दः परिसमाप्ति सूचयति। बुद्धिकार्यत्वात् सुखं बुद्धधनन्तरं व्याचष्टे--अनुग्रहलक्षणं सुखमिति । अनुगृह्यतेऽनेनेत्यनुग्रहः, अनुग्रहलक्षणमनुग्रहस्वभावमित्यर्थः । सुखं ह्यनुकूल. स्वभावतया स्वविषयमनुभवं कुर्वन् पुरुषान्तरमनुगृह्णाति । एतदेव व्याचष्टेस्रगादीति। स्रक्चन्दनवनितादयो येऽभिप्रेता विषयास्तेषां सान्निध्ये सति होती है। ( अत: धर्मादि के उक्त ज्ञान अनुमान में अन्तर्भूत हो जाते हैं )। अर्थलिङ्गानपेक्षं धर्मादिषु दर्शनमिष्टं तत्प्रत्यक्षार्षयोरन्यतरस्मिन्नन्तर्भूतम्' अर्थात् यदि धर्माधर्मादि के उक्त ज्ञान इन्द्रियों से होते हैं, तो वे प्रत्यक्ष ही हैं। यदि उन ज्ञानों को इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं है, तो फिर वे 'आषंज्ञान' ही हैं। एवं बुद्धिः' इस वाक्य के द्वारा बुद्धि निरूपण का उपसंहार करते हैं। ‘एवम्' अर्थात् कथिन क्रम से 'बुद्धिः' अर्थात् बुद्धि की व्याख्या की गयी है । उक्त वाक्य का इति' शब्द प्रकरण समाप्ति का सूचक है। सुख यतः बुद्धि से उत्पन्न होता है, अतः बुद्धि निरूपण के वाद 'अनुग्रहलक्षणं सुखम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा सुख का निरूपण करते हैं। (प्रकृत) सन्दर्भ का 'अनुग्रह' पद 'अनुगृह्यते अनेन' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न हैं। तदनुसार 'अनुग्रहलक्षण' शब्द का अर्थ है 'अनुग्रहस्वभाव' । सुख स्वभावतः ( जीव को प्रिय होने के कारण उसके ) अनुकूल है। अतः सुख अपने अनुभव के द्वारा पुरुष को अनुगृहीत करता है। 'स्रगादि' इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा इसी की व्याख्या करते हैं । माला, चन्दन, स्त्री प्रभृति जितने भी प्रिय विषय हैं, उनका सान्निध्य रहने पर अर्थात् उनका सम्बन्ध रहने पर, उन अभिप्रेत विषयों की उपलब्धि एवं इन्द्रियों का उन अर्थों के साथ सम्बन्ध प्रभृति कारणों के द्वारा धर्म के साहाय्य से जिसकी उत्पत्ति होती है वही 'सुख' हैं । विषय अभिप्रेत भी हो उसका सान्निध्य भी हो किन्तु भोक्ता का चित्त यदि दूसरे विषय For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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