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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६३० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे सिद्धदर्शन प्रशस्तपादभाष्यम् ग्रहनक्षत्रसञ्चारादिनिमित्तं धर्माधर्मविपाकदर्शनमिष्टम् , तदप्यनुमानमेव । अथ लिङ्गानपेक्षं धर्मादिषु दर्शनमिष्टं तदपि प्रत्यक्षार्षयोरन्तरस्मिन्नन्तर्भूतमित्येवं बुद्धिरिति । अनुग्रहलक्षणं सुखम् । स्रगाद्यभिप्रेतविषयसान्निध्ये सतीष्टोपलब्धीन्द्रियार्थसन्निकर्षाद् धमाद्यपेक्षादात्ममनसोः संयोगाद अन्तरिक्षलोक तथा भूलोक में रहनेवाले प्राणियों को ग्रहों और नक्षत्रों की विशेष प्रकार की गति देखकर जो धर्म, अधर्म और उनके परिणामों का ( अस्मदादि से विलक्षण ) ज्ञान होता है, उसे भी यदि सिद्धदर्शन कहना इष्ट हो तो वह भी वस्तुतः अनुमान ही है । यदि हेतु की अपेक्षा के बिना ही धर्म ( अधर्म एवं इनके परिणामों ) का ज्ञान माने ( तो वे यह अनुमान नहीं होंगे ) फिर भी प्रत्यक्ष या आर्षज्ञान में अन्तर्भूत हो जाएंगे। इस प्रकार विद्यारूप बुद्धि ( मूलत: चार प्रकार की ही ) है। जिसका अनुभव अनुकूल जान पड़े वही 'सुख' है ( विशदार्थ यह है कि ) माला प्रभृति अभिप्रेत विषयों का सान्निध्य होने पर ( मालादि उन) न्यायकन्दली कमजनपादलेपादिसिद्धानां दृश्यानां दर्शनयोग्यानां स्वरूपवतां पदार्थानां द्रष्टारो ये ते सिद्धाः' उच्यन्ते। तेषां दृश्यद्रष्टणामञ्जनादिसिद्धानां सूक्ष्मेषु व्यवहितेषु विप्रकृष्टेषु यद् दर्शनमिन्द्रियाधीनानुभवस्तत् प्रत्यक्षमेव । अथ दिव्यान्तरिक्षभौमानां प्राणिनां ग्रहनक्षत्रसञ्चारनिमित्तं धर्माधर्मविपाकदर्शनं सिद्धज्ञानमिष्टं तदप्यनुमानमेव, ग्रहसञ्चारादीनां लिङ्गत्वात् । अथ लिङ्गानपेक्षं धर्मादिषु दर्शनमिष्टं तत् प्रत्यक्षार्षयोरन्यतरस्मिन्नन्तर्भूतम् । यदि धर्मादिदर्श. पूर्वकमञ्जनपादलेपादिसिद्धानाम्' इत्यादि सन्दर्भ में प्रयुक्त 'दृश्यद्रष्टणाम्' इस पद की यह व्युत्पति है कि 'दृश्यानाम् ये द्रष्टारः, तेषां दृश्यद्रष्ट्रणाम् । इस व्यत्पत्ति के अनुसार देखने योग्य (घटादि स्थूल) वस्तुओं के देखनेवाले पुरुष ही उक्त 'दृश्यद्रष्ट्र' शब्द से अभिप्रेत हैं । वे ही जब प्रयत्नपूर्वक ( मण्डूकवशाजन, पादलेपादि के द्वारा) विशेष सामर्थ्य रूप 'सिद्धि' को प्राप्त करते हैं, तो वे 'सिद्ध' कहलाते हैं। उन्हें भी जो अत्यन्त सूक्ष्म, या दीवाल प्रभृति से घिरे हुए या अतिदूर के वस्तुओं का इन्द्रियों से अनुभव होता है वह तो 'प्रत्यक्ष' ही है, यदि 'सिद्धदर्शन' शब्द से धर्म, अधर्म और उनके विपाकों के वे ज्ञान ही अभीष्ट हों, जो दिव्यलोक में, अन्तरिक्षलोक में या भूमि में रहनेवाले सिद्धों को ग्रहसञ्चारादि को समझकर होता है, तो फिर ये सिद्धदर्शन रूप सभी ज्ञान अनुमान ही हैं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति ग्रहसञ्चारादि लिङ्गों से For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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