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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम्) भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् शब्द इत्यनेनानित्य एव शब्द इति प्रतिपिपादयिषितार्थपरिसमाप्तिगम्यते: ( अर्थात् निदर्शन के द्वारा ज्ञात व्याप्ति विशिष्ट हेतु का पक्ष के साथ सम्बन्ध रूप पक्षधर्मता ही अनुसन्धान वाक्य से प्रतिपादित होती है ) इसके बाद 'अनित्यः शब्दः' इस प्रत्याम्नाय वाक्य से शब्द अनित्य ही है' इस प्रकार प्रतिपादन के लिए इच्छित अर्थ की परिसमाप्ति होती है। न्यायकन्दली बहिर्व्याप्तिसम्भवे कृतकस्तेजोऽवयवी अनुष्णो न भवति, प्रमाणविरोधात् । तथा यत् प्रयत्नानन्तरीयकं तदनित्यमिति बहिर्व्याप्तिसम्भवे कदाचित् प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दोऽनित्यो न भवेदिति विपक्षाशङ्कायां हेतोरसाधकत्वे तस्मादनित्यः शब्द इति प्रत्याम्नायः, यस्मानित्यत्वप्रतिपादकं प्रमाणं नास्ति तस्माच्छब्दो नित्यो न भवतीत्यर्थः। अनेनान्यव्यावृत्तिवाचिना विपरीतप्रमाणाभावग्राहक प्रमाणमुपस्थाप्यते, उपस्थापिते च तदभावे प्रतिपादिते विपरीतशालिवत्तौ दर्शिताविनाभावाद्धेतोर्मिण्युपसंहृताद् ब्याप्तिग्राहकप्रमाणबलेन निविचिकित्सः साध्यं प्रत्येति, नापरं किञ्चिदपेक्ष्यत इत्यनेन प्रत्याम्नायेनानित्य एव शब्द इति प्रतिपिपादयिषितस्यार्थस्य परिसमाप्तिनिश्चयो गम्यते । कि तेज के अवयव कृतिजन्य होते हुए भी अनुष्ण नहीं होते क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष प्रमाण का विरोध होगा। उसी प्रकार 'जो प्रयत्नानन्तरीयक है वह अनित्य है' इस बाह्य व्याप्ति की सम्भावना में भी यह आपत्ति की जा सकती है कि शब्द यद्यपि प्रयत्नानन्तरीयक है, फिर भी अनित्य नहीं भी हो सकता है' इस प्रकार शब्द में अनित्यत्व के साधक 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' में असाधकत्व ( साध्य को साधन करने की अक्षमता ) की जो आपत्ति उपस्थित होती है, उसी को मिटाने के लिए 'तस्मादनित्यः शब्दः' इस प्रत्याम्नाय वाक्य का प्रयोग किया जाता है। इसका यह अभिप्राय है कि यतः शब्द में नित्यत्व का साधक कोई प्रमाण नहीं है, अतः शब्द नित्य नहीं हो सकता। अन्यव्यावृत्ति के बोधक इस प्रत्याम्नाय वाक्य के द्वारा प्रकृत अनित्यत्व रूप साध्य के विपरीत अर्थात् नित्यत्व के साधक प्रमाण का अभाव उपस्थित किया जाता है। उसकी उपस्थिति हो जाने पर प्रकृत साध्य के विपरीत साध्य की शङ्का मिट जाती है, जिससे कथित व्याप्ति से युक्त हेतु का प्रकृत पक्ष में उपसंहार के द्वारा व्याप्ति के बोधक प्रमाण की निधि उपस्थिति होती है। विपरीतप्रमाणाभाव को इस उपस्थिति से साध्य के विपरीत अर्थात् साध्याभाव को शङ्का भी मिट जाती है। इससे पूर्व में कथित व्याप्ति से युक्त हेतु का पक्ष में उपसंहार के कारण उम व्याप्ति रूप ज्ञापक प्रमाण से साध्य का निःशङ्क ज्ञान हो जाता है। फिर साध्यज्ञान के लिए और किसी की अपेक्षा नहीं रह जाती। इस प्रकार प्रत्याम्नाय के द्वारा शब्द अनित्य ही है' इस प्रतिपाद्य अर्थ को 'परिसमाप्ति' अर्थात् अन्तिम ज्ञान होता है । For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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