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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६१८ ग्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽवयव प्रशस्तपादभाष्यम् प्रयत्नानन्तरीयकं दृष्टम् , यथाकाशमित्यनेन साध्याभावेन साधनस्यासत्वं प्रदश्यते। तथा च प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दो दृष्टो न च तथाकाशवदप्रयत्नानन्तरीयकः शब्द इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां दृष्टसामर्थ्यस्य साधनसामान्यस्य शब्देऽनुसन्धानं गम्यते । तस्मादनित्यः साधक प्रयत्नान्तरीयकत्व की सत्ता है' केवल इतना ही बोध होता है। ( इसके बाद प्रयुक्त ) 'प्रयत्न के बाद जो सत्ता लाभ करते हैं, वे सभी अनित्य ही देखे जाते हैं जैसे कि घटादि' इस ( साधर्म्य ) निदर्शन वाक्य से सभी साध्यों के साथ सभी हेतुओं के केवल अन्वय का बोध होता है 'जितने भी नित्य पदार्थ उपलब्ध हैं, उन सभी की सत्ता बिना प्रयत्न के ही देखी जाती है जैसे कि आकाश की' इस ( वैधर्म्य ) निदर्शन वाक्य से साध्य के अभाव के साथ हेतु के अभाव की नियमित सत्ता रूप व्यतिरेक ही प्रतिपादित होता है। शब्द घादि की तरह प्रयत्न के बाद ही सत्ता लाभ करते दीखते हैं' एवं 'आकाशादि की तरह बिना प्रयत्न के ही सत्ता लाभ करते नहीं दीखते' इस अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा (प्रयत्नानन्तरीयकत्व रूप ) हेतु में अनित्यत्व रूप साध्य के साधन का व्याप्ति रूप सामर्थ्य ज्ञात होता है ( इस प्रकार ) ज्ञान के सामर्थ्य ( व्याप्ति ) से युक्त हेतु सामान्य का शब्द रूप पक्ष में अनुसन्धान ही अनुसन्धान-वाक्य से किया जाता है । न्यायकन्दली मिति । दृष्टमेतत् किं तु शब्दे तदस्ति नवेति जिज्ञासायाम्-तथा च प्रयत्नानन्तरीयकः शब्द इति । यथा घटः प्रयत्नानन्तरीयकः, तथा शब्दोऽपि प्रयत्नानन्तरीयकः । न चाकाशवदप्रयत्नानन्तरीक इत्यनुसन्धानेनान्वयव्यतिरेकाभ्यां दृष्टसामर्थ्यस्य दृष्टाविनाभावस्य प्रयत्नानन्तरीकत्वस्य शब्दे धर्मिण्यनुसन्धानमुपस्थापनं गम्यते। यथा यत् कृतकं तदनुष्णं दृष्टम्, यथा घट इति सत्यपि ( की व्याप्ति) दिखलायी गयी है । 'यत् प्रयत्नानन्तरीयकम्, तदनित्यम्' इस साधर्म्य निदर्शन वाक्य से "यह तो समझा कि प्रयत्द को सत्ता के अधीन जिनकी सत्ता होती है, वे सभी अनित्य होते हैं, किन्तु शब्द में यह प्रयत्नानन्तरीयकत्व है कि नहीं ? यह जानने की इच्छा तब भी बनी ही रहती है, इसो इच्छा को निवृत्ति के लिये “तथा च प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दः" इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है। अर्थात् जिस प्रकार घट में प्रयत्नानन्त रीयकत्व है, उसी प्रकार शब्द में भी प्रयत्नानन्त रोयकत्व है। एवं आकाश की तरह शब्द प्रयत्नानन्तरीयक नहीं है । इस प्रकार दोनों अनुसन्धान वाक्यों से अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा दृष्टसामर्थ्य' अर्थात् जिस प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु की व्याप्ति ज्ञात हो गयी है, उसी प्रयत्नानन्त रीयकत्व का शब्द' में अर्थात् पक्ष में 'अनुसन्धान' अर्थात् उपस्थापन होता है। जिस प्रकार “जो कृति से उत्पन्न होता है, वह अनुष्ण होता है" इस प्रक र की बाह्य व्याप्ति की सम्भावना इससे मिट जाती है For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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