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भ्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम् किन्तु सामान्यमेव सम्पद्यते, कस्मात् ? तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु द्रव्यादिभेदानामेकैको विशेषस्योभयथादृष्टत्वादित्युक्तम्, न संशयदेखा जाता है, अत: कान से सूने जानेवाले एवं सत्ता जाति से सम्बद्ध शब्द में 'यह द्रव्य है ? या गुण है ?' अथवा कर्म है ?' इस प्रकार का संशय नहीं होगा। इसी आक्षेप के समाधान में उक्त सूत्र के द्वारा कहा गया है कि श्रावणत्व द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों में से किसी का 'विशेष' अर्थात् असाधारण धर्म नहीं है। उनका वह साधारण धर्म ही प्रतीत होता है, क्योकि द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों में से प्रत्येक द्रव्य, प्रत्येक गुण, एवं प्रत्येक कर्म के असाधारण धर्म अपने सजातीयों के ( अर्थात् अपने में और अपने सजातीयों में समान रूप से रहनेवाले ) सामान्य धर्म के साथ ही देखा
न्यायकन्दली श्रोत्रग्रहणेऽर्थे संशयः किं द्रव्यं किं वा गुणः किमुत कर्मेति । अत्र परेणोक्तम्-- श्रोत्रग्रहणे शब्दे संशयं वदता त्वया श्रोत्रग्राह्यत्वमेव संशयकारणत्वमुक्तम् । श्रोत्रग्राह्यत्वं च विशेषः, तस्य दर्शनात् संशयानुपपत्तिः। विरुद्धोभयस्मृतिपूर्वको हि संशयः, स्मृतिश्च नासाधारणधर्मदर्शनाद्भवति, तस्य केनचिद्विशेषेण सहानुपलम्भादिति परेणोक्ते सति सूत्रकारेण प्रतिविहितमेतत्, नायं द्रव्यादीनामन्यतमस्य विशेषः श्रावणत्वम्, द्रव्यगुणकर्मणां मध्येऽन्यतमस्य द्रव्यस्य गुणस्य कर्मणो वा श्रावणत्वं विशेषो न भवति, किन्तु तेषां सामान्यमेवेदं सम्पद्यते, कस्मात् ? तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु च द्रव्यादिभेदानामेकैकशो विशेषस्योभयथा दृष्टत्वादित्युक्तम् । भिद्यन्ते इति भेदाः, द्रव्यादय एव भेदा
भोत्रग्राह्यत्व शब्द का 'विशेष' अर्थात् असाधारण धर्म है, अतः उसके ज्ञान से संशय नहीं हो सकता। चूंकि विरुद्ध दो कोटियों की उपस्थिति स्मृति का कारण है, यह स्मृति असाधारण धर्म के ज्ञान से सम्भव नहीं है, क्योंकि किसी भी विशेष धर्म के साथ उनकी उपलब्धि नहीं होती है। पूर्वपक्षवादियों के द्वारा यह आक्षेप किये जाने पर महर्षि कणाद ने यह समाधान किया है कि जिस श्रावणत्व धर्म का उल्लेख किया गया है, वह द्रव्यादि में से किसी एक का 'विशेष' नहीं है, अर्थात् द्रव्य या गुण अथवा कर्म इन तीनों में से श्रावणत्व किसी एक का 'विशेष' नहीं है, किन्तु उन तीनों का वह सामान्य ही प्रतिपन्न होता है। अपने इस उत्तर के प्रसङ्ग में 'कस्मात्' अर्थात् किस हेतु से आप यह बात कहते हैं ? यह पूछे जाने पर सूत्रकार ने "तुल्यजातीयेष्वर्थान्तर. भूतेषु द्रव्यादिभेदानामने कैकशो विशेषस्योभयथादृष्टत्वात्" इत्यादि सूत्र के द्वारा इसका
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