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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ५६७ न्यायकन्दली द्रव्यादिभेदा द्रव्यगुणकर्माणि, तेषां मध्ये एकैकस्य द्रव्यस्य गुणस्य कर्मणो वा तुल्यजातीयेभ्योऽर्थान्तरभूतेभ्यो विशेष 'उभयथादृष्टः । पृथिव्याः स्वसमानजातीयेभ्यो विशेषः पृथिवीत्वं द्रव्यत्वेन सह दृष्टम् ? रूपस्य विशेषो रूपत्वं गुणत्वेन सह दृष्टम्, उत्क्षेपणस्य विशेष उत्क्षेपणत्वं कर्मत्वेन सह दृष्टम् । शब्दस्यापि श्रावणत्वं विशेषः गुणत्वेन, तस्मादेतदपि विशेषत्वेन रूपेण द्रव्यदीनां सामान्यमेव । ततश्चास्य तेन रूपेण संशयहेतुत्वं युक्तम्। यत् पुनरसाधारणं रूपं न तत् संशयकारणम, विशेषस्मारकत्वाभावादित्याह- न संशयकारणमिति । तुल्यजातीयेभ्योऽर्थान्तरभूतेभ्य. श्चेति वक्तव्ये सूत्रे सप्तम्यभिधानादेषोऽप्यर्थो गम्यते । शब्दे श्रावणत्वविशेषदर्शनाद् द्रव्यं गुणः कर्मति संशयः । द्रव्यादिभेदानामेकैकशो विशेषस्य तुल्यजातीयेषु सपनेष्वर्थान्तरभूतेषु विपक्षेषु दर्शनादिति । किमुक्तं स्यात् ? विशेषो द्रव्ये गुणे उत्तर दिया है। भिद्यन्त इति भेदाः द्रव्यादय एव भेदा द्रव्यादिभेदाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उक्त सूत्र में प्रयुक्त 'द्रव्यादिभेद' शब्द से द्रव्य गुण और कर्म, ये तीनों ही अभिप्रेत हैं। उन तीनों में से एक एक का अर्थात् द्रव्य या गुण अथवा कर्म का इनमें से सभी में 'तुल्यजातीयों' से अर्थात् समानजातीयों एवं 'अर्थान्तरभूत वस्तुओं' से अर्थात् भिन्नजातीयों से, दोनों प्रकार की वस्तुओं से 'विशेष' अर्थात् व्यावृत्ति देखी जाती है । दोनों प्रकार से ज्यावृत्ति या विशेष का यह देखा जाना ही सूत्र के 'उभयथादृष्ट' शब्द से अभिप्रेत है। पृथिवी का 'विशेष' है पृथिवीत्व, जो ( उसके समानजातीय जलादि द्रव्यों में रहनेवाले ) द्रव्यत्व के साथ ही पृथिवी में है। रूप का 'विशेष' है रूपत्व, जो रूप में गुणत्व के साथ ही देखा जाता है। एवं उत्क्षेपण रूप क्रिया का विशेष है उत्क्षेपणत्व, जो कर्मत्व के साथ ही देखा जाता है। इसी तरह शब्दों का श्रावणत्व रूप विशेष भा गुणत्व के साथ ही रहेगा। अतः यह श्रावणत्व रूप धर्म ( गन्धवत्त्वादि अन्य सभी विशेषों के समान होने के कारण 'सामान्य' ही है ( साधारण धर्म ही है ) 'विशेष' अर्थात् असाधारण धर्म नहीं, अतः श्रावणत्व शब्द में द्रव्यत्वादि संशय का अवश्य ही कारण है, किन्तु असाधारण धर्म होने के नाते नहीं, किन्तु साधारण धर्म होने के नाते ही। असाधारण धर्म कभी संशय का कारण होता ही नहीं क्योंकि वह किसी व्यावृत्ति का ( अभाव का) स्मारक नहीं है । यही बात भाष्यकार ने 'न संशय. कारणम्' इस वाक्य से कही है। तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु' इत्यादि सूत्र में साधारण रीति से प्राप्त पञ्चमी विभक्ति से युक्त 'तुल्य जातीयेभ्योऽर्थान्तरभूतेभ्यः' इस प्रकार के पदों का प्रयोग न कर उक्त सप्तमी विभक्ति से युक्त पदों के प्रयोग से भी यही मालूम होता है कि शब्द में श्रावणत्व रूप विशेष के ज्ञान से यह संशय होता है कि 'शब्द द्रव्य है ? अथवा गुण है ? किं वा कर्म है ?' क्योंकि 'द्रव्यादि भेदों के अर्थात् द्रव्य' गुण और कर्म में से प्रत्येक के 'विशेष' से अपने आश्रय को तुल्यजातीयों से अर्थात् सपक्षों से, और For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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