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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् इति, न, संशयो विषयद्वैतदर्शनात् । संशयोत्पत्तौ विषयद्वैतदर्शनं कारणम्, तुल्यबलत्वे च तयोः परस्परविरोधानिर्णयानुत्पादकत्वं (सिद्धान्त ) नहीं, यहाँ कोई भी शास्त्रविरोध नहीं है क्योंकि एक ही विषय के दो विरुद्ध प्रकार के ज्ञान से संशय होता है, ( एक धर्मी में दो विरुद्ध धर्मों के ज्ञान से नहीं )। अर्थात विषय का द्वैतदर्शन ( दो प्रकारों से देखने ) से ही संशय की उत्पत्ति होती है। उन ( क्रियावत्त्व और अस्पर्शवत्त्व ) दोनों न्यायकन्दली विरुद्धाव्यभिचारिणः संशयहेत्वभावे प्रतिपादिते शास्त्रविरोधं चोदयति-नन्विति । उभयथा दर्शनमिति। उभाभ्यां विरुद्धधर्माभ्यां सहैकस्य धर्मिणो दर्शनं संशयकारणमिति शास्त्रे तत्र तत्र स्थाने कथितम् 'दृष्टं च दृष्टवद् दृष्ट्वा ' संशयो भवति ( वै० अ० २ आ० २ सू० १८ )। अमूर्तत्वेन सहात्मनि दृष्टमस्पर्शवत्वं यथा मनसि दृश्यते, तथा मूर्तत्वेन सह परमाणौ दृष्टं क्रियावत्त्वमपि दृश्यते, अतोऽमूर्तत्वेन सह दृष्टमस्पर्शवत्त्वमिव मूर्तत्वेन सह दृष्टं क्रियावत्त्वमपि दृष्ट्वा संशयो भवति कि मनो मूर्तम् ? किमुतामूर्तम् ? इति । 'यथादृष्टमयथादृष्टमुभयथादृष्टत्वात् संशयः' ( अ० २ आ० २ सू० १६)। यथा हम आगे कहेंगे । (प्र०) इससे क्या अभिप्राय निकला ? (उ०) यही कि हम आगे कहेंगे कि 'असाधारण धर्म' ( हेतु ) 'अध्यवसाय' ( निश्चय ) को उत्पन्न नहीं करता। 'विरुद्धाव्यभिचारी' हेतु ( असाधारण धर्म ) संशय का कारण नहीं है । कथित इस पक्ष के ऊपर 'ननु' इत्यादि ग्रन्थ से ( वैशेषिक सूत्र ) रूप शास्त्र के विरोध का उद्भावन किया गया है। 'उभयथा दर्शनम्' इत्यादि सन्दर्भ का यह अभिप्राय है कि 'उभाभ्याम' अर्थात् 'विरुद्ध दो धर्मों के साथ एक धर्मी का ज्ञान संशय का कारण है । यह जो शास्त्र ( वैशेषिक सूत्र ) में उन सब स्थानों में कहा गया है उसका विरोध होगा। जैसे कि 'दृष्टं च दृष्टवत्' ( वै० सू० अ० २ आ. २ सू० १८) इस सूत्र के द्वारा कहा गया है कि 'दृष्ट्वा संशयो भवति' ( अभिप्राय यह है कि ) मन में अमूर्त्तत्व के साथ आत्मा में रहने वाला अस्पर्शवत्त्व भी है, एवं परमाणु में मूर्तत्व के साथ रहनेवाला क्रियावत्त्व भी मन में है, अतः यह संशय होता है कि 'मन मूर्त है या अमूर्त ? 'यथादृष्टमयथा दृष्ट मुभयथा दृष्टत्वाच्च' ( वै. सू. अ. २ सू. १६ ) के द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि 'यथादृष्ट' और 'अयथादृष्ट' इन दोनों प्रकार से ज्ञात धर्म के द्वारा संशय होता है । कहने का तात्पर्य है कि 'यथा' अर्थात् जिस प्रकार मूर्तत्व की व्याप्ति से युक्त क्रियावत्त्व के साथ मन की उपलब्धि होती है, एवं 'अयथादृष्ट' अर्थात् उसी प्रकार इससे विरुद्ध अमर्तत्व के साथ अवश्य रहने वाले क्रियावत्त्व के साथ भी मन की उपलब्धि होती है, अतः 'उभयथादृष्ट' अर्थात् For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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