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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास प्रशस्तपादभाष्यम् वक्ष्यामः । ननु शास्त्रे तत्र तत्रोभयथा दर्शनं संशयकारणमपदिश्यत कारण असाधारण होते हैं, इसी प्रकार क्रियावत्त्व और अस्पर्शवत्त्व ये दोनों स्वतन्त्र रूप से अलग-अलग मन से भिन्न वस्तुओं में रहते हुए भी मिलित होकर केवल मनरूप पक्ष में ही हैं, अतः क्रियावत्त्व से युक्त अस्पर्शवत्त्व असाधारण ही हैं, सन्दिग्ध नहीं । सिद्धान्तपक्ष ) हम आगे कहेंगे कि कथित स्थिति में अचाक्षुषत्व विशिष्ट प्रत्यक्षत्व या क्रियावत्त्वविशिष्ट अस्पर्शवत्त्व 'अनध्यवसित' होगा, सन्दिग्ध नहीं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( पूर्वपक्ष ) शास्त्र ( वैशेषिक सूत्रों अ० २ आ० २ सू० १८ तथा १६ ) में एक धर्मी में विरुद्ध दो धर्मों के ज्ञान को संशय का कारण कई स्थानों में कहा गया है । अतः उक्त कथन शास्त्र के विरुद्ध है । न्यायकन्दली यच्चाह न्यायवात्तिककारः - विभागजत्वं विभागजविभागासमवायिकारणकत्त्वं नर्ते शब्दात् सम्भवतीति सर्वतो व्यावृत्तेः संशयहेतुरिति । अत्राह -- ततश्चानध्यवसित इति वक्ष्याम इति । विरुद्धयोः सन्निपातोSसाधारणोऽसाधारणत्वाच्चानध्यवसितोऽयमिति वक्ष्यामः । किमुक्तं स्यात् ? असाधारणो धर्मोऽध्यवसायं न करोतीति वक्ष्याम इत्यर्थः । है कि ( गन्धवत्वादि ) असाधारण धर्म भी ( पृथिवी में नित्यत्व एवं अनित्यत्व के ) संशय का कारण है । ( उसकी रीति यह है कि ) उक्त असाधारण धर्म किसी सपक्ष में एवं किसी भी विपक्ष में न रहने के कारण पृथिवी में नित्यत्व का अभाव अनित्यत्व और अनित्यत्व का अभाव नित्यत्व इन दोनों का साधन कर सकता है, क्योंकि दो विरुद्ध धर्मों की सत्ता एक धर्मी में सम्भव नहीं है, अतः पृथिव्यादि में गन्धवत्त्वादि रूप असाधारण धर्मों से नित्यत्वादि का संशय ही होता है । जैसा कि न्यायवार्तिककार ( उद्योतकर ) ने भी कहा है कि - विभागजस्व अर्थात्, विभागजविभागरूप असमवायिकारण से उत्पन्न होना शब्द से भिन्न किसी दूसरी वस्तु में सम्भव नहीं है, अतः सपक्ष और विपक्ष इन दोनों में से किसी में भी न रहने के कारण उक्त विभागजत्व रूप असाधारण धर्म शब्द में संशय का कारण है । इसी आक्षेप का समाधान ' ततश्चानध्यवसित इति वक्ष्यामः ' इस वाक्य कें द्वारा किया गया है । अर्थात् ) चूंकि विरुद्ध दो धर्मों का एक आश्रय में समावेश ही असाधारण है, अतः इसी असाधारण्य के कारण वह 'अनध्यवसित' नाम का हेत्वाभास है, यह For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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