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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम्] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली तरपक्षे सपक्षे विपक्षे वाऽसम्भवात्, यथाऽचाक्षुषत्वप्रत्यक्षत्वयोः प्रत्येकं गुणव्यभिचारेऽपि समुदितयोर्गुणव्यतिरेकेणान्यत्रासम्भवः। यद्यपि विरुद्धाव्यभिचारिधर्मद्वयोपनिपातोऽसाधारणो धर्मः, तथापि संशयहेतुत्वमेव । व्यतिरेकिणो हि विपक्षादेवकस्माद् व्यावृत्तिनियता, तेन पक्षे निर्णयहेतुत्वम् । असाधारणस्य तु व्यावृत्तिरनकान्तिको, विपक्षादिव सपक्षादपि तस्याः सम्भवात् । तत्र यदि गन्धवत्त्वमनित्यव्यावृत्तत्वान्नित्यत्वं साधयति, नित्यादपि गगनाद् व्यावृत्तेरनित्यत्वमपि साधयेत् ? न चास्त्युभयोः सिद्धिः, वस्तुनो द्वैरूप्याभावात् । नाप्युभयोरसिद्धिः, प्रकारान्तराभावात् । अतो गन्धवत्त्वात् पृथिव्यां संशयो भवति किमियं नित्या ? किं वानित्या ? इति । यदाहुभट्टमिश्राः __यत्रासाधारणो धर्मस्तदभावमुखेन तु। द्वयासत्त्वविरोधाच्च मतः संशयकारणम् ॥ किसी भी सपक्ष में या किसी भी विपक्ष में सम्भव नहीं है। जैसे कि अचाक्षुषत्व ( आँखों से न देखे जाने योग्य ) और प्रत्यक्षत्व इन दोनों में से अलग अलग प्रत्येक का गुण में व्यभिचार (गुण से भिन्न पदार्थ में विद्यमानत्व) है, क्योंकि गुण से भिन्न आकाशादि द्रव्य चक्षु से नहीं देखे जाते एवं गुण से भिन्न होने पर भी घटादि द्रव्यों का प्रत्यक्ष होता है ), किन्तु अचाक्षुषत्व और प्रत्यक्षत्व दोनों मिल कर केवल गुण में ही हैं ( क्योंकि गन्धादि गुणों का चक्षु से ग्रहण न होने पर भी प्रत्यक्ष होता है)। यद्यपि विरुद्धाव्यभिचारी दो धर्मों का एक आश्रय में रहना असाधारण धर्म है, फिर भी वह संशय का ही उत्पादक है ( निर्णय का नहीं)। ( अन्वय ) व्यतिरेकी हेतु में केवल विपक्ष में न रहना (विपक्षव्यावृत्ति ) ही केवल निश्चित है ( सपक्षव्यावृत्ति नहीं ), अतः वह हेतु पक्ष में साध्य के निश्चय का उत्पादन कर सकता है। असाधारण हेतु में सपक्ष या विपक्ष इन दोनों में से किसी एक की भी व्यावृत्ति नियमित नहीं है, क्योंकि विपक्ष की तरह सपक्ष में भी उसका न रहना निर्णीत ही है। अतः गन्धवत्त्व रूप असाधारण हेतु सभी अनित्यों में न रहने के कारण पृथिवी में नित्यत्व का अगर साधन कर सकता है, तो फिर गगनादि नित्य पदार्थों में न रहने के कारण पृथिवी में अनित्यत्व का भी वह साधन कर ही सकता है। किन्तु एक ही पृथिवी व्यक्ति में नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि एक वस्तु एक ही प्रकार की हो सकती है, दो प्रकार की नहीं । ( वस्तुओं का किसी एक ही प्रकार का होना निश्चित होने के कारण ही ) नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों को असिद्धि भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि किसी एक वस्तु का नित्यत्व और अनित्यत्व से भिन्न कोई तीसरा प्रकार हो ही नहीं सकता । अतः पृथिवी में गन्ध के रहने के कारण यह संशय होता है कि 'यह नित्य है अथवा अनित्य ? जैसा कि भट्टमिश्र ( कुमारिलभट्ट) ने कहा ७४ For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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