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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने हेत्वाभास न्यायकन्दली येन धर्मेण मूर्तत्वाव्यभिचारिणा क्रियावत्त्वेन समं 'दृष्टम्' मनस्तस्मात् 'अयथादृष्टम्' अमूर्तत्वाव्यभिचारिणा स्पर्शवत्वेन समं दृष्टम्, अत: 'उभयथादृष्टत्वात्' संशयः किं क्रियावत्त्वान्मूतं मनः ? उतास्पर्शवत्त्वादमूर्तम् ? इति सूत्रार्थः । तेन विरुद्धाव्यभिचारिणः संशयहेतुत्वं निराकुर्वतः शास्त्रविरोधः। एतत् परिहरति न संशयः, विषयद्वैतदर्शनादिति । यत् त्वयोक्तं शास्त्रविरोध इति, तन्न, यस्मात् संशयो विषयद्वैतदर्शनाद् भवति । एतदेव विवृणोति-संशयोत्पत्तौ विषयद्वैतदर्शनं कारणमिति । यादशे धमिण्यूर्ध्वस्वभावे संशयो जायते, 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति, तादशस्य विषयस्य पूर्व द्वैतदर्शनमुभयथादर्शनं स्थाणुत्वपुरुषत्वाभ्यां सह दर्शनं संशयकारणम्, न त्वेकस्य धर्मिणो विरुद्धधर्मद्वयसन्निपातस्तस्य कारणम्, तस्मान्नायं सूत्रार्थों यद्विरुद्धाव्यभिचारिधर्मद्वयोपनिपातात् संशय इत्यभिप्रायः। तथा च दृष्टं च दृष्टवदृष्ट्वेत्यस्यायमर्थः-पूर्वमेव 'दृष्टम्' पदार्थ स्थाणु वा पुरुषं वा, 'दृष्टवद्' दृष्टाभ्यां स्थाणुपुरुषान्तराभ्यां तुल्यं वर्तमानं दृष्टम्, स्थाणुपुरुषान्तरसमानमिति यावत्, देशान्तरे कालान्तरे वा पुनदृष्ट्वा मन की उक्त दोनों प्रकार से उपलब्धि होने के कारण यह संशय होता है कि 'यतः मन क्रियाशील है, अतः मूर्त है ? अथवा 'मन में स्पर्श नहीं है, अत: मन अमूर्त है ? यही उक्त दोनों वैशेषिक सूत्रों के अर्थ हैं । जो कोई विरुद्धाव्यभिचारी ( असाधारण ) धर्म को संशय का कारण नहीं मानते, उन्हें उक्त दोनों सूत्र रूप शास्त्रों के विरोध का सामना करना पड़ेगा। ___'न, विषयद्वैतदर्शनात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा सिद्धान्ती इस विरोध का परिहार करते हैं । अर्थात् आप (पूर्वपक्षी) ने जो यह कहा है कि 'शास्त्र-विरोध है', सो नहीं है, क्योंकि उक्त दोनों सूत्रों से यही कहा गया है कि विषय दो प्रकार से जानने के कारण (विषयद्वैतदर्शन से) संशय उत्पन्न होता है। (संशयो विषयतदर्शनाद् भवति) अपने इस वाक्य का ही 'संशयोत्पत्तौ विषयद्वैतदर्शनं कारणम्' इस वाक्य के द्वारा विवरण देते हैं । अभिप्राय यह है कि ( स्थाणुर्वा पुरुषः में) ऊँचाई वाले जिस धर्मी में 'स्थाणुर्वा पुरुषः' इस आकार का संशय होता है, उस संशय के प्रति पहिले 'विषय' का 'द्वतदर्शन' अर्थात् 'उभयथा दर्शन' फलतः पुरुष और स्थाणु दोनों में समान रूप से ऊँचाई का देखना ही कारण है। उस संशय के प्रति एक धर्मी में विरुद्धाव्यभिचारी दो धर्मों का सम्मिलन कारण नहीं है । अतः उक्त सूत्र का यह अभिप्राय नहीं है कि विरुद्धाव्यभिचारी दो धर्मों का एक धर्मी में समावेश संशय का कारण है। तदनुसार 'दृष्टञ्च दृष्टवद् दृष्ट्वा' इस सूत्र का यह अभिप्राय है कि पूर्वकाल में 'दृष्ट' स्थाणु या पुरुष को ही 'दृष्टवत्' अर्थात् वर्तमान काल में दूसरे स्थाणु या दूसरे पुरुष के 'तुल्य' देखकर अर्थात् दूसरे काल या दूसरे देश में दूसरे पुरुष का दूसरे स्थाणु के समान फिर से देखकर, किसी कारणवश उन दोनों के स्थाणुत्व और पुरुषत्व For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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