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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५७४ न्यायकन्दलीसंबलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽसमय न्यायकन्दली ऽनुपपन्नः। अथैतदर्थः शब्दः प्रयुज्यते ? तदभ्युपगतं शब्दस्यार्थप्रतिपादकत्वमिति प्रतिज्ञायाः स्ववचनविरोधः ।। प्रत्यक्षानुमानावगतवस्तुतत्त्वान्वाख्यानं शास्त्रम् । तद्विरोधः प्रत्यक्षानुमानविरोध एव, तथा तद्भावभावित्वानुमानसमधिगम्यं शब्दस्यार्थप्रत्यायकत्वं प्रतिषेधयतोऽनुमानविरुद्धव प्रतिज्ञा, कस्मात् स्वशास्त्रवचनविरोधयोः पृथगभिधानम् ? अत्रोच्यते-प्रमाणाभासमूलमपि शास्त्रं भवति शाक्यादीनाम्, अत्र बौद्धस्य 'सर्वमक्षणिकम्' इति प्रतिजानतः स्वशास्त्रविरोध एव, न प्रमाणविरोधः। स्ववचनम् ( अपि) कदाचिदप्रमागमूलमपि स्यात्, अतस्तद्विरोधो न प्रमाणविरोधः, किन्तु स्ववचनविरोध एव । लिए 'शब्दो नार्थप्रत्यायकः' इस वाक्य का भी प्रयोग करना उचित नहीं होगा। यदि उक्त अर्थ को समझाने के लिए उक्त वाक्य का प्रयोग वादी करते हैं, यो फिर वादी शब्द को अर्थबोध का कारण स्वयं मान ही लेते हैं। इस प्रकार उक्त प्रतिज्ञा स्ववचन विरोधी है ( क्योंकि वादी अपने अभीष्ट अर्थ को समझाने के लिए शब्दों का प्रयोग भी करें, और शब्द को अर्थप्रत्यायक भी न मानें ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं)। (प्र०) प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा निर्णीत तत्त्व का ही 'अन्वाख्यान' अर्थात् पश्चात् कथन तो शास्त्र' है, अतः शास्त्र का विरोध वस्तुत: प्रत्यक्ष और अनुमान का ही विरोध है। एवं शब्द में अर्थबोध की कारणता इस अनुमान के द्वारा ही निश्चित होती है कि 'चूकि शब्दप्रयोग के 'भाव' अर्थात् सत्ता के कारण हो अर्थबोध को सत्ता देखी जाती है, अतः शब्द ही अर्थ का बोधक है' सुतराम् शब्द में अर्थबोध के निषेध करनेवाले पुरुष की शब्दो नार्थप्रत्यायकः' यह प्रतिज्ञा भी वस्ततः अनुमान के ही विरुद्ध है। (इस प्रकार स्वशास्त्रविरोध और स्ववचनविरोध ये दोनों ही प्रत्यक्ष विरोध या अनुमानविरोध में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं ) उनका अलग से परिगगन क्यों ? (उ०) इस आक्षेप के उत्तर में हम लोग कहते हैं कि सभी शास्त्र प्रमाणमूलक ही नहीं होते, ऐसे भी शास्त्र हैं जिनका अनुमोदन प्रमाण से नहीं किया जा सकता, जैसे कि बौद्धों के आगम हैं। अतः बौद्ध यदि 'सभी वस्तुयें अक्षणिक हैं' इस आशय के प्रतिज्ञावाक्य का प्रयोग करें तो वह प्रतिज्ञा प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण के विरुद्ध नहीं होगी, किन्तु उसमे 'स्वशास्त्र विरोध' ही होगा। इसी प्रकार स्ववचन भी कभी कभी अप्रमाणमूलक होता है. ऐसे स्थलों की प्रतिज्ञा में प्रमाणविरोध तो होगा नहीं, स्ववचन विरोध ही होगा ( अतः स्वशास्त्र विरोध और स्वचनविरोध का अलग से उल्लेख किया गया है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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