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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Acharya Shri प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् लिङ्गवचनमपदेशः। यदनुमेयेन सहचरितं तत्समानजातीये सर्वत्र सामान्येन प्रसिद्धं तद्विपरीते च सर्वस्मिन्नसदेव तल्लिङ्ग हेतुबोधक वाक्य ही 'अपदेश' है। (विशदार्थ) जो अनुमेय ( पक्ष ) में साध्य के साथ रहे एवं सभी तत्सजातीयों में अर्थात् सभी दृष्टान्तों में सामान्य रूप से (साध्य के साथ ) ज्ञात हो, एवं उसके विपरीत अर्थात् सभी विपक्षों में जो कदापि न रहे उसे 'लिङ्ग' अर्थात् हेतु कहा गया है, न्यायकन्दली लिङ्गवचनमपदेशः। अस्यार्थं कथयति-यदनुमेयेनेत्यादिना। तत्सुगमम् । उदाहरणमाह-क्रियावत्त्वाद् गुणवत्त्वाच्चेति । द्रव्यं वायुरिति प्रतिज्ञायाः क्रियावत्त्वादिति क्रियावत्त्वस्य लिङ्गस्य वचनमपदेशः, तस्यामेव प्रतिज्ञायां गुणवत्त्वस्य लिङ्गस्य गुणवत्त्वादिति वचनमपदेशः, तयोरुपन्यासः सपक्षेकदेशवृत्तः सपक्षव्यापकस्य च हेतुत्वप्रदर्शनार्थः। यदुक्तं लिङ्गलक्षणं तत् क्रियावत्त्वस्य गुणवत्त्वस्य चास्तीत्याह-तथा च तदिति। तद् गुणवत्वमनुमेयेऽस्ति तत्समानजातीये सपक्षे द्रव्ये सर्वस्मिन्नस्ति, असर्वस्मिन् सपक्षकदेशे मूर्तद्रव्यमाने क्रियावत्त्वमस्ति, उभयमप्येतत् क्रियावत्त्वं गुणवत्त्वं चाद्रव्ये विपक्षे 'यवनुमेयेन' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'लिङ्गवचनमपदेशः' इस वाक्य का अर्थ स्वयं कहते है। इस ( स्वपदवर्णन रूप भाष्य ) का अर्थ सुगम है। क्रियावत्त्वाद् गुणवत्त्वाच्च' इस वाक्य के द्वारा 'अपदेश' रूप दूसरे अवयव का उदाहरण दिखलाया गया है । (प्रतिज्ञा प्रन्थ में उल्लिखित ) 'द्रव्यं वायुः' इस प्रतिज्ञा के ही क्रियावत्त्व' रूप हेतु का प्रतिपादक 'क्रियावत्त्वात्' इस वाक्य का प्रयोग हो प्रकृत में 'अपदेश' है । उसी प्रतिज्ञा में 'पुणवत्त्वात्' इस वाक्य के द्वारा गुणवत्त्व रूप लिङ्ग का जो निर्देश किया गया है वह वचन भी 'अपदेश' है। इन दोनों हेतुओं का निर्देश इस विशेष को समझाने के लिए किया गया है कि कुछ ही सपक्षों में रहने वाला भी 'हेतु' है (जैसे कि क्रियाक्त्त्व रूप हेतु पृथिवी प्रभृति कुछ सपक्षों में ही है सभी सपक्षों में नहीं, क्योंकि आकाशादि सपक्षों में क्रियावत्त्व नहीं है ) एवं कुछ ऐसे भी हेतु होते हैं जो सभी सपक्षों में रहते हैं, जैसे कि प्रकृत 'गुणवत्त्व' हेतु ( क्योंकि वह सभी द्रव्यों में है)। 'तथा च तदनुमेयेऽस्ति' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कहते हैं कि लिङ्ग के जितने भी लक्षण कहे गये हैं, वे सभी क्रियावत्त्व और गुणवत्त्व रूप दोनों हेतुओं में हैं। 'तत्' अर्थात् गुणवत्त्व और क्रियावत्त्व रूप दोनों हेतु अनुमेय में अर्थात् वायु रूप पक्ष में हैं। इनमें गुणवत्त्व हेतु 'सर्वस्मिन् अर्थात् द्रव्य रूप सभी सपक्षों में है। और 'क्रियावत्त्व' रूप हेतु 'असर्वस्मिन्' अर्थात 'सपक्षकदेश में अर्थात् मूर्तद्रव्य रूप कुछ ही सपक्षों में है। किन्तु गुणवत्त्व और क्रियावत्त्व रूप दोनों हेतु 'अन्य' अर्थात् विपक्षों में द्रव्य से भिन्न सभी पदार्थों में कभी भी नहीं For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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