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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ५७३ प्रशस्तपादभाष्यम् विरोधी, वैशेषिकस्य सत्कार्यमिति अवतः स्वशास्त्रविरोधी, न शब्दोऽर्थप्रत्यायक इति स्ववचनविरोधी । वाले यदि 'सत्कार्यम्' इस प्रतिज्ञावाक्य का प्रयोग करें तो वह स्वशास्त्र. विरोधी प्रतिज्ञा होगी। यदि कोई इस प्रतिज्ञा वाक्य का प्रयोग करे कि 'शब्दो नार्थप्रत्यायक:' तो यह स्ववचनविरोधी प्रतिज्ञा होगी। न्यायकन्दली ब्राह्मणेन सुरा पेयेत्यागमविरोधी। ब्राह्मणस्य सुरा पीता पापसाधनं न भवतीति प्रतिज्ञार्थः । अत्र क्षीरमुदाहरणम्, क्षीरस्य च पापसाधनत्वाभावः श्रतिस्मृत्यागमैकसमधिगम्यः । येनैवागमेन क्षीरपानस्य पापसाधनत्वाभावः प्रतिपादितः, तेनैव सुरापानस्य पापसाधनत्वं प्रतिपादितमिात ब्राह्मणेन सुरा पेयेति प्रतिज्ञाया दृष्टान्तग्राहकप्रमाणविरोधः। वैशेषिकस्यापि प्रागुत्पत्तेः सत्कार्यमिति ब्रुवतः स्वशास्त्रविरोधी। वैशेषिको हि वैशेषिकशास्त्रप्रामाण्याभ्युपगमेन वादादिषु प्रवर्तते। तस्य 'प्रागुत्पादात् सत् कार्यम्' इति ब्रुवतः प्रतिज्ञायाः शास्त्रेण विरोधः, वैशेषिकशास्त्रे 'असदुत्पद्यते' इति प्रतिपादनात् । शब्दो नार्थप्रत्यायक इति स्ववचनविरोधी। यदि शब्दस्यार्थप्रत्यायकत्वं नास्ति, तदा शब्दो नार्थ प्रतिपादयति' इत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनाय शब्दप्रयोगो 'ब्राह्मणेन सुरा पेयेत्यागमविरोधी' । 'ब्राह्मणेन सुरा पेया' इस प्रतिज्ञा वाक्य का यह अर्थ है कि ब्राह्मण के द्वारा पी गयी सुरा ( मद्य) पाप का कारण नहीं होती। इसका उदाहरण है दूध । (अर्थात् जिस प्रकार ब्राह्मण से पान किया गया दूध पाप का कारण नहीं है, उसी प्रकार ब्राह्मण से पान किया गया मद्य भी पाप का कारण नहीं है) 'दूध स्वपान के द्वारा पाप का साधन नहीं है' यह केवल श्रुति एवं स्मृति रूप 'आगम प्रमाण से ही समझा जा सकता है। आगम के द्वारा ही 'दूध का पीना पाप का कारण नहीं है' यह कहा गया है, एवं आगम ( शब्द ) प्रमाण से ही यह निश्चित है कि सुरापान पाप का साधन है' इस प्रकार 'ब्राह्मण को सुरापान करना चाहिए' यह प्रतिज्ञा दुग्धपान रूप अपने दृष्टान्त के ज्ञापक प्रमाण का विरोधी है। 'वैशेषिकस्यापि प्रागुत्पत्तेः सत्कार्यमिति ब्रुवत: स्वशास्त्रविरोधी' वैशेषिक दर्शन के अनुयायी वैशेषिक दर्शन रूप शास्त्र को प्रमाण मान कर ही वादादि कथाओं में प्रवृत्त होते हैं । वे यदि इस प्रतिज्ञावाक्य का प्रयोग करें कि 'कार्य अपनी उत्पत्ति के पहिले भी विद्यमान ही रहता है' तो उनकी यह प्रतिज्ञा वैशेषिक दर्शन रूप अपने शास्त्र के ही विरुद्ध होगी, क्योंकि वैशेषिकदर्शन में यह प्रतिपादन किया गया है कि 'पहिले से अविद्यमान कार्य की ही उत्पत्ति होती है। 'शब्दो नार्थप्रत्यायक इति स्ववचनविरोधी' शब्द से यदि अर्थ का बोध ही नहीं होता है, तो फिर 'शब्द अर्थ का बोध का कारण नहीं है' इस अर्थ को समझाने के For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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