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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् ५४५ न्यायकन्दली अथ मतम्-निरधिकरणो न कस्यचिदभावः प्रतीयते, देशादिनियमेन प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् । यदधिकरणश्चायं प्रतीयते तस्य प्रतीताविन्द्रियव्यापारो नाभावग्रहणे, इन्द्रियव्यापारोपरमेऽप्यभावप्रतीतिदर्शनात् । तथा हि-कश्चित् स्वरूपेण देवकुलादिकं प्रतीत्य स्थानान्तरगतो देवकुले देवदत्तोऽस्ति नास्तीति केनचित् पृष्टः तदानीमेव ज्ञातजिज्ञासो नास्तीति प्रतीत्याऽभावं व्यवहरति नास्तीति । न च पूर्वमेव देवकुलग्रहणसमये देवदत्ताभावो निर्विकल्पेन गृहीतः, सम्प्रति स्मर्यमाण इति वाच्यम्, युक्तं घटादीनामिन्द्रियसन्निकर्षानिर्विकल्पेन ग्रहणम्, तेषां स्वरूपस्य परानपेक्षत्वात् । अभावस्य तु प्रतिषेधस्वभावस्य स्वरूपमेव यस्यायं (एव) प्रतिषेधः स्यात् तदधीनम् । अतस्तत्प्रतिषेधतामन्तरेण तदभावस्य स्वरूपान्तराभावात् । तत्रास्य प्रतियोगिस्वरूपनिरूपणमन्तरेण निरूपणम इस प्रसङ्ग में अभाव को प्रमाण माननेवालों का कहना है कि नियमत: किसी विशेष देश में ही अभाव के प्रसङ्ग में प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है, इससे यह सिद्ध होता है कि किसी अधिकरण में ही अभाव की प्रतीति होती है, अधिकरण को छोडकर केवल अभाव की प्रतीति नहीं होती है। तदनुसार जिस अधिकरण में अभाव की प्रतीति होती है, उस अधिकरण की प्रतीति में ही इन्द्रिय का व्यापार आपेक्षित होगा। (प्र.) उस अधिकरण में भी अभाव की प्रतीति के लिए इन्द्रिय का व्यापार अपेक्षित नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों के व्यापार के हट जाने पर भी अभाव की प्रतीति होती है । जैसे किसी पुरुष को किसी देवालय को देखने के बाद किसी दूसरे स्थान में जाने पर कोई पूछता है कि 'वहाँ देवदत्त हैं या नहीं ? उसी समय उस पुरुष की जिज्ञासा को समझकर 'देालय में देवदत्त नहीं हैं' इस प्रतीति के द्वारा वह पुरुष 'नास्ति' का व्यवहार (अर्थात् 'देवकुले देवदत्तो नास्ति' इस बाक्य का व्यवहार) करता है। (प्र०) देवालय के देखने के समय ही उसे वहां देवदत्त के अभाव का निर्विकल्पक ज्ञान हो गया था। अभी वह उसी निर्विकल्पक ज्ञान जनित स्मृति के द्वारा देवदत्त के अभाव का व्यवहार करता है । (उ०) ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव का निर्विकल्पक ज्ञान सम्भव ही नहीं है । घटादि पदार्थों का निर्विकल्पक ज्ञान इस लिए सम्भव होता है कि उनके ज्ञान के लिए प्रतियोगी प्रभृति किसी दूसरे पदार्थों को जानने की अपेक्षा नहीं होती है। किन्तु अभाव तो किसी भाव पदार्थ का प्रतिषेध रूप है, अतः उसको जानने के लिए उस भाव पदार्थ को भी जानना आवश्यक है, जिसका कि वह प्रतिषेध है। क्योंकि भाव के प्रतिषेध को छोड़कर अभाव का कोई दूसरा स्वरूप ही नहीं है। तस्मात् प्रतिषेध्य (प्रतियोगि) ज्ञान के बिना अभाव का ज्ञान सम्भव ही नहीं है । (अर्थात् अभाव का ज्ञान प्रतियोगी रूप विशेषण से युक्त होकर ही होगा, अतः अभाव का निर्विकल्पक ज्ञान असम्भव है)। भाव और अभाव में यही अन्तर है कि भाव का अपने भावत्व रूप से ही ६६ For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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