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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५४६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावान्तर्भाव न्यायकन्दली ---- शक्यम् । अयमेव हि भावाभावयोविशेषो यदेकस्य विधिरूपतया ग्रहणम्, अपरस्य त्वन्यप्रतिषेधमुखेन । यदाह न्यायवार्तिककारः - "स्वतन्त्रपरतन्त्रोपलब्ध्यनुपलब्धिकारणभावाच्च विशेषः, सत्तु खलु प्रमाणस्यालम्बनं स्वतन्त्रम्, असत्तु परतन्त्रमन्यप्रतिषेधमुखेनेति" । यदि त्वभावस्यापि स्वातन्त्र्येण ग्रहणं तदा भावादविशेषः स्यात् । अतो नास्त्यभावस्य निर्विकल्पकेन ग्रहणम् । यदपि विकल्पितं किं देवदत्तसंकीर्णस्य देवकुलस्य पूर्वं प्रतीतिरासीत् ? तद्विविक्तस्य वा ? संकीर्णग्रहणे तावत् केवलस्य न स्मरणम् । विविक्तग्रहणे वाभावोऽगृहीत एव पश्चात् स्मर्यत इति प्राप्तम् । तदप्यसारम्, देवदत्तभावाभावयोर ग्रहणेऽपि देवकुलस्य स्वरूपेण ग्रहणात् । तस्मान्न पूर्वमभावग्रहणम्, तदभावान्न स्मृतिः, न च तदानों प्रमाणान्तरमुपलभ्यते : तस्माद् व्यवहितेऽपि ग्रहण होता है, किन्तु अभाव का भाव के प्रतिषेध रूप से ग्रहण होता है। जैसा कि न्यायवार्तिककार उद्योतकर ने कहा है कि "भाव और अभाव में यहीं अन्तर है कि एक (भाव) स्वतन्त्र है, और दूसरा (अभाव) परतन्त्र । एवं एक की सत्ता का उसकी अपनी उपलब्धि ही नियामक है, और दूसरे की सत्ता के प्रतियोगी की अनुपलब्धि नियामक है । 'सत्' अर्थात् भाव पदार्थ प्रमाण के द्वारा स्वतन्त्र ही गृहीत होता है, किन्तु 'असत्' अर्थात् अभाव प्रतियोगी के प्रतिषेध रूप से, फलतः प्रतियोगी परतन्त्र होकर प्रमाण के द्वारा ज्ञात होता है" । यदि अभाव की भी स्वतन्त्र उपलब्धि ही हो तो भाव और अभाव दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा, फलतः दोनों अभिन्न हो जाएँगे । अतः निर्विकल्पक ज्ञान के अभाव का गृहीत होना सम्भव नहीं है । इस प्रसङ्ग में किसी ने जो यह विकल्प उपस्थित किया था कि पहले देवदत्त और देवालय (देवकुल) दोनों की साथ साथ प्रतीति थी ? या देवदत्त से असम्पृक्त केवल देवकुल को ही प्रतीति थी ? यदि साथ साथ प्रतीति मानें तो फिर केवल देवकुल का स्मरण नहीं होगा । ( उस स्मृति में देवदत्त भी अवश्य ही भासित होगा, एवं देवदत्त के भासित होने पर उसके अभाव की प्रतीति असम्भव होगी) । यदि दूसरा पक्ष मानें तो ( यह अनिष्टापत्ति होगी कि ) पूर्व में अज्ञात ही देवकुल का स्मरण होता है । ( उ० ) इस विकल्प में भी कुल सार नहीं है, क्योंकि देवदत्त या उनका अभाव, इन दोनों में से किसी का ग्रहण न होने पर भी देवकुल अपने देवकुलत्व स्वरूप के साथ ही वहाँ ज्ञात होता है । देवदत्त के अभाव का उस पुरुष को पहिले सविकल्पक या निर्विकल्पक कोई भी ज्ञान नहीं था । अतः देवदत्त के अभाव की स्मृति भी उस पुरुष को नहीं हो सकती । उस समय देवदत्त के अभाव का ज्ञापक कोई दूसरा प्रमाण भी नहीं उपलब्ध होता है, अतः यही कहना पड़ेगा कि उस पुरुष को देवदत्त की संनिधि For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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