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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् ५२३ न्यायकन्दली तावत् प्रेक्षावान्न प्रवर्तते, यावत् तद्विषये वाक्यस्य प्रामाण्यं नावधारयति । दृष्टं च लोके वचसः प्रामाण्यं वक्तृगुणावगतिपूर्वकम्, तेन वेदेऽपि तथैव प्रामाण्यान्निविचिकित्समनुष्ठानं स्यात् । ___अत्रके वदन्ति-नाप्तोक्तत्वनिबन्धनं वचसः प्रामाण्यम्, सर्वप्रमाणानां स्वत एव प्रामाण्यादिति। ते इदं प्रष्टव्याः, प्रामाण्यमेव तावत् किमुच्यते ? किमर्थाव्यभिचारः ? किं वा यथार्थपरिच्छेदकत्वम् ? न तावदाव्यभिचारः । सत्यपि वह्निनियतत्वे धूमस्य प्रमत्तस्य कुतश्चिन्निमित्तादनुत्पादिताग्निज्ञानस्यप्रामाण्याभावात्, नीलपीतादिषु प्रत्येक व्यभिचारेऽपि चक्षुषो यथार्थज्ञानजनकत्वेनैव प्रामाण्यात् । अथ यथार्थपरिच्छेदकत्वं प्रामाण्यम ? तत् कि स्वतो ज्ञायते ? स्वतो वा जायते ? किं वा स्वतो व्याप्रियते ? यदि तावज्ज्ञानेन स्वप्रामाण्यं स्वयमेव ज्ञायेत, यथार्थपरिच्छेदकमहमस्मीति । न तहि अपेक्षित होता है-तब तक प्रवृत्ति नहीं हो सकती जब तक कि उन अनुष्ठानों के बोधक वाक्यों में प्रामाण्य का अवधारण न हो जाय । शब्दों के प्रामाण्य के प्रसङ्ग में लोक में यह देखा जाता है कि उसका प्रामाण्य अपने ज्ञान के लिए वक्ता में यथार्थज्ञानादि गुणों के ज्ञान की अपेक्षा रखता है, अतः वेदों में भी उसी प्रकार से वक्ता में गुणावधारणमूलक प्रामाण्य जब तक अवधारित नहीं होगा, तब तक उनसे विहित यागादि का निःशङ्क अनुष्ठान नहीं हो सकेगा। ___ इस प्रसङ्ग में एक सम्प्रदाय के ( मीमांसक ) लोग कहते हैं कि (प्र.) शब्द आप्तजनों से उक्त होने के कारण प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि सभी प्रमाणों का प्रामाण्य स्वतः है। ( उ०) इन लोगों से यह पूछना चाहिए कि आप लोग प्रामाण्य किसे कहते हैं ? क्या (१) अर्थ के साथ ज्ञान का अव्यभिचार (नियत सम्बन्ध ) ही प्रामाण्य है ? अथवा ( २) वस्तुओं को अपने रूप में निश्चित करना ही प्रामाण्य है ? (१) अर्थ का अव्यभिचार तो प्रामाण्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे कितने हो पागल दुनियाँ में हैं, जिन्हें जिस किसी प्रतिबन्ध के कारण धूम में वह्नि की व्याप्ति रहने पर भी धमज्ञान से वह्नि का ज्ञान नहीं होता, फलतः उस धूम ज्ञान में प्रामाण्य नहीं रहेगा। एवं नील में सम्बद्ध चक्षु पीत में व्यभिचरित रहने पर भी यथार्थ ज्ञान का करण होने से ही प्रमाण माना जाता है । (२) यदि प्रामाण्य को यथार्थपरिच्छेदकत्व रूप मानें तो उस प्रसङ्ग में पहिले यह पूछना है कि यह यथार्थपरिच्छेदकत्व निम्नलिखित पक्षों में से क्या है ? (१) प्रामाण्य स्वतः ज्ञात होता है ? या (२)प्रामाण्य स्वतः उत्पन्न होता है ? अथवा (३) प्रामाण्य अपने अर्थपरिच्छेद रूप कार्य में स्वतः व्याप्त होता है ? (१) यदि ज्ञान का प्रामाण्य अपने ही द्वारा 'यथार्थ परिच्छेदक For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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