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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् गुणे स्वतःप्रामाण्यखण्डन न्यायकन्दली वाक्यस्य कृतिर्वेद इति-वाक्यस्य कृतिर्वाक्यरचना बुद्धिपूर्विका, वाक्यरचनात्वात्, लौकिकवाक्यरचनावत् । लिङ्गान्तरमाह-बुद्धिपूर्वो ददातिरित्युक्तत्वात् । वेदे ददातिशब्दो बुद्धिपूर्वको ददातिरित्युक्तत्वाल्लौकिकददातिशब्दवत् । यच्चेदमस्मर्यमाणकर्तृकत्वादिति, तदसिद्धम्, “प्रजापतिर्वा इदमेक आसीनाहरासीन्न रात्रिरासीत्, स तपोऽतप्यत, तस्मात् तपसश्चत्वारो वेदा अजायन्त" इत्याम्नायेनैव कर्तृस्मरणात्, जीर्णकूपादिभिर्व्यभिचाराच्च । तदेवमनित्यत्वे वेदस्य सिद्ध पुरुषवचसा द्वैतोपलम्भात् प्रामाण्यसन्देहे सति दृष्टे विषये कदाचिदर्थसन्देहात् प्रवृत्तिर्भवत्यपि, अदृष्टे तु विषये प्रचुरवित्तव्ययशरीरायाससाध्ये के द्वारा निष्पन्न है, तदनुसार उक्त सूत्र से यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार लौकिक वाक्य की रचना केवल वाक्य की रचना होने के कारण ही पुरुष की बुद्धि से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार वेदवाक्यों की रचना भी चूंकि वाक्य रचना ही है, अतः वह भी पुरुष की बुद्धि से ही उत्पन्न है । वेदों में अनित्यत्व के साधन के लिए ही दूसरे हेतु का प्रदर्शन करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि 'बुद्धिपूर्वो ददातिः' इस सूत्र की रचना महर्षि कणाद ने की है। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार लोक में 'ददाति' शब्द का प्रयोग (पुरुष की) बुद्धि के द्वारा निष्पन्न होता है, उसी प्रकार वेद के ददाति' शब्द का प्रयोग भी केवल 'ददाति' शब्द का प्रयोग होने के कारण ही बुद्धि के द्वारा उत्पन्न है। (वेद को नित्य माननेवालों ने) यह जो 'अस्मय॑माणकत्तु कत्व' रूप हेतु का उल्लेख ( वेदों के नित्यत्व के लिए किया है, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ) यह हेतु ही वेद रूप पक्ष में सिद्ध नहीं है । चूंकि 'प्रजापतिर्वा' इत्यादि वेद वाक्यों में कर्ता का स्पष्ट उल्लेख है। एवं यह 'अस्मर्यमाणकत्तकत्व' रूप हेतु उन जीर्णकूपादि में व्यभिचरित भी है, जिनके बनानेवालों का नाम आज कोई नहीं जानता। इस प्रकार वेदों में अनित्यत्व के सिद्ध हो जाने पर ( यह उपपादन करना सुलभ है कि ) दृष्टान्तभूत लौकिक वाक्य प्रमाण और अप्रमाण दोनों ही प्रकार के उपलब्ध होते हैं, अतः उनमें प्रामाण्यसन्देह के कारण उन वाक्यों से निर्दिष्ट कार्यों में कदाचित् अर्थ के सन्देह से भी प्रवृत्ति हो सकती है, किन्तु वैदिक यागादि कार्यों में-जिनके फल स्वर्गादि सर्वथा अदृष्ट हैं, जिनके अनुष्ठान में बहुत से धन का व्यय होता है, शारीरिक परिश्रम भी बहुत For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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