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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२१ प्रकरणम्] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् प्रामाण्यम्" (वै. अ. १ आ. १ सू. ३) “लिङ्गाचानित्यो बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिदे" (वै. अ. ६ आ. १ सू. १) "बुद्धिपूर्वो ददातिः" (वै. अ. ६ आ. १ सू. ३) इत्युक्तत्वात् । "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे", "बुद्धिपूर्वो ददातिः' इत्यादि सूत्रों के द्वारा कही गयी है। न्यायकन्दली माण्यावबोधेन विसंवादप्रतीतेरपि सम्भवात् । यत्र च सर्वेषां संवादनियमस्तत्प्रमाणमेव, यथा प्रत्यक्षादिकम् । प्रमाणं वेदः, सर्वेषामविसंवादिज्ञानहेतुत्वात्, प्रत्यक्षवत् । यत्तु दृष्टार्थेषु कर्मस्वनुष्ठानात् क्वचित् फलादर्शनं न तदस्य प्रामाण्यं प्रतिक्षिपति, सामग्रीवैगुण्यनिबन्धनत्वात् । तन्निबन्धनत्वं च यथावत्सामग्रीसम्भवे सति फलदर्शनात् । ___ आप्तोक्तत्वादाम्नायस्येति न युक्तम्, तदर्थानुष्ठानकालेऽभियुक्तैरनुष्ठातृभिः स्मृत्ययोग्यस्य कर्तुरस्मरणादभावसिद्धरत आह-लिङ्गाच्चानित्य इति । तद्वचनादाम्नायप्रामाण्यमित्यत्रोक्तमाम्नायपदं प्रकृतत्वादिह सम्बध्यते, लिङ्गा. दाम्नायोऽनित्यो गम्यत इत्यर्थः । लिङ्गमुपन्यस्यति-बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेद इति । क्षादि प्रमाण । अतः प्रत्यक्षादि प्रमाणों की तरह वेद भी सभी व्यक्तियों में प्रमा ज्ञान का ही उत्पादक होने के कारण प्रमाण ही है। यह जो कोई आक्षेप करते हैं कि 'वेदों के द्वारा निर्दिष्ट अनुष्ठानों में से कुछ निष्फल भी होते हैं, जिससे निःशङ्क प्रामाण्य का विघटन होता है, यह आक्षेप तो उन अनुष्ठानों की यथाविहित सामग्री में वैगुण्य की कल्पना करके भी हटाया जा सकता है । 'उन अनुष्ठानों के विधान के अनुसार सामग्री का सम्बलन नहीं था' यह इसी से समझ सकते हैं कि विधान के अनुसार सामग्री के द्वारा जो अनुष्ठान किया जाता है, वह अवश्य ही सफल होता दीखता है । (प्र.) आम्नाय (वेद) आप्तों से उक्त होने के कारण प्रमाण नहीं है, क्योंकि अनुष्ठान के समय अनुष्ठाताओं को वेदों के कर्ता का स्मरण नहीं होता है, अतः सत्ता के न रहने के कारण वे स्मृति के अयोग्य हैं ? इसी प्रश्न के समाधान के लिए 'लिङ्गाच्चानित्यः' इस सूत्र का उल्लेख किया गया है। इस सूत्र के पूर्ववर्ती 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' इस सूत्र के 'आम्नाय' पद को प्रकृत में उपयुक्त होने के कारण 'लिङ्गाच्चानित्यः' इस सूत्र में अनुवृत्त समझना चाहिए । तदनुसार इस सूत्र का यह अर्थ होता है कि हेतु से आम्नाय को अनित्य समझना चाहिए, ( अर्थात् हेतु से वेद में अनित्यत्व का अनुमान करना चाहिए)। 'बुद्धिपूर्वा वाक्य कृतिदे इस सूत्र के उल्लेख के द्वारा वेद में अनित्यत्व के साधक हेतु का ही निर्देश किया गया है। उक्त सूत्र का 'वाक्यकृतिः' शब्द 'वाक्यस्य कृतिः' इस समास For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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