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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५२४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभव्यम् [ गुणे स्वतः प्रामाण्यखण्डन न्यायकन्दली प्रमाणे यथार्थमिदमयथार्थ वेति संशयः कदाचिदपि स्यात्, विपर्ययज्ञाने च प्रवृत्तिर्न भवेत् । अथ स्वात्मनि क्रियाविरोधादात्मानमगृह्लद् विज्ञानमात्मनो यथार्थपरिच्छेदकत्वं न गृह्णाति तहि तत्परिच्छेदाय परमपेक्षितव्यम्, प्रमाणेन विना प्रमेयप्रतीतेरभावात् । प्रामाण्यस्यापि प्रमीयमानदशायां प्रमेयत्वादिति परतः प्रामाण्यमेव । परेण प्रामाण्ये ज्ञायमाने परेण प्रामाण्यं ज्ञेयम्, तस्यापि प्रामाण्यमपरेण ज्ञेयं तस्याप्यन्येनेत्यनवस्थेति चेत् ? नानवस्था, सर्वत्र प्रामाण्ये जिज्ञासाभावात् । प्रमाणं हि स्वोत्पत्त्यैवार्थं परिच्छिनत्ति न ज्ञातप्रामाण्यम्, तेन त्वर्थे परिच्छिन्नेऽपि यत्र कुतश्चिन्निमित्तात् प्रमाणमिदमप्रमाणं वेति संशये जाते विषयसन्देहात् पुरुषस्याप्रवृत्तिः, तत्रास्य प्रवृत्त्यर्थं करणान्तरात् प्रामाण्यजिज्ञासा भवति, अनवधारिते प्रामाण्ये संशयानुच्छेदात् । यत्र पुनरत्यन्ताभ्यास मैं ही हूँ' इस प्रकार से ज्ञात होता तो फिर ( प्रमा ज्ञान रूप ) प्रमाण में 'यह यथार्थ है ? या अयथार्थ ? इस प्रकार का संशय कभी नहीं होता । एवं विपर्यय ज्ञान से जो ( विफला ) प्रवृत्ति होती है, वह भी कभी नहीं होती ( उससे भी सफल प्रवृत्ति ही होती ) । यदि यह कहें ( प्र ) 'स्व' में क्रिया के विरोध के कारण अर्थात् एक ही वस्तु में एक क्रिया का कर्तृत्व और कर्मत्व रूप दो विरुद्ध धर्मों का समावेश असम्भव होने के कारण एक ज्ञान व्यक्ति अपने उसी ज्ञान व्यक्ति का ग्रहण नहीं कर सकता, अतः 'स्व' में रहनेवाले यथार्थपरिच्छेदकत्व का भी ग्रहण उससे नहीं होता है । ( उ० ) तो फिर अर्थ परिच्छेद के लिए किसी दूसरे प्रमाण की अपेक्षा होगी, क्योंकि प्रमाण के बिना प्रमेय का ज्ञान नहीं होता है । प्रमाण भी अपने प्रमा ज्ञान में विषय होने की दशा में प्रमेय है ही । अतः यथार्थपरिच्छेदकत्व भी 'परतः ' ही है । ( प्र०) दूसरी प्रमा से जिस समय प्रामाण्य गृहीत होता है, उस समय यह प्रामाण्य उस दूसरे प्रमाण का ज्ञेय विषय होता है । किन्तु जब यह दूसरा प्रमाण स्वयं ज्ञेय होता है, तब वह किसी तीसरे प्रमाण के द्वारा गृहीत होता है । इसी तरह उस तीसरे प्रमाण का भी ग्रहण किसी चौथे प्रमाण से होगा। इस प्रकार 'परतः प्रामाण्यम' पक्ष में अनुवस्था दोष है । ( उ० ) यह अनवस्था दोष 'परतः प्रामाण्य' पक्ष में नहीं है, क्योंकि सभी ज्ञानों में प्रामाण्य का संशय उपस्थित नहीं होता । प्रमाण अपनी उत्पत्ति के द्वारा अपने अर्थों का अवधारण कर लेता है । अर्थ परिच्छेद के लिए प्रामाण्य के ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है । प्रामाण्यसंशय के द्वारा अर्थ में प्रवृत्ति के न होने यह कारण है कि प्रमाण के द्वारा अर्थ पच्छेिद के बाद जब किसी कारणवश अर्थ के परिच्छेदक इस प्रमाण में 'यह प्रमाण है या अप्रमाण ?' इस आकार का संशय उपस्थित होता है और इस संशय से अर्थविषयक संशय होता है । इस अर्थ संशय के कारण ही प्रवृत्ति का उक्त प्रतिरोध होता है, प्रवृत्ति के इस प्रतिरोध को हटाकर पुनः प्रवृति के सम्पादन के लिए ही दूसरे कारणों के तक प्रामाण्य का द्वारा प्रामाण्य को जानने की अवधारण नहीं हो जाएगा, इच्छा उत्पन्न होती है, क्योंकि जब तब तक प्रामाण्य का उक्त संशय For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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