________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
( ४६ ) इन सभी उपपत्तियों के अनुसार मेरी सम्मति में अभाव पदार्थ भी महर्षिकणादा के द्वारा स्वीकृत है।
इस पुस्तक के पाठ के प्रसङ्ग में मैंने साधारणतः मुद्रित न्यायकन्दली का ही अनुसरण किया है। किन्तु जहाँ कहीं मुझे ऐसे पाठ मिले, जिससे प्रकृत अर्थ का बोध ही संभव नहीं था, उनको यथामति संशोधन करके तदनुसार ही अनुवाद किया है। किन्तु मूल में यथावत् प्रायः मुद्रित पुस्तक के पाठ को ही रहने दिया है। नीचे टिप्पणी में उपपत्ति सहित उन पाठभेदों का उल्लेख कर दिया है। विद्वान् लोग इस पर अवश्य दृष्टिपात करें।
अनुवाद में मैंने अर्थ को स्पष्ट करने के अभिप्राय से कुछ अधिक शब्दों के प्रयोग का स्वातन्त्र्य ग्रहण किया है। इतने बड़े आकार के ग्रन्थ में न्यूनता के अतिरिक्त भ्रम और प्रमाद की पूरी संभावना है। अतः विद्वानों से क्षमा याचना पूर्वक प्रार्थना है कि ऐसे स्थलों से मुझे अवश्य अवगत करावें। जिससे अगर इसका पुनः संस्करण संभव हुआ तो उन अवगतियों से लाभ उठाया जा सके।
तद्विद्वांसोऽनुगृह्णन्तु चित्तश्रौत्रैः प्रसादिभिः ।
सन्तः प्रणयिवाक्यानि गृह्णन्ति ह्यनसूयवः ॥ आचार्य कुमारिलभट्ट के इस श्लोक के साथ मैं इस भूमिका को समाप्त करता हूँ।
दुर्गाधर झा
अनुसन्धानसहायक, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय,
वाराणसी।
For Private And Personal