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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५१२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम [गुणे अनुमान प्रशस्तपादभाष्यम् शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्भावः, समानविधित्वात् । यथा प्रसिद्धसमयस्यासन्दिग्धलिङ्गदर्शनप्रसिद्धयनुस्मरणाभ्यामतीन्द्रियेऽर्थे भवत्यनुमानमेवं शब्दादिभ्योऽपीति । शब्दादि प्रमाण भी इसी ( अनुमान ) के अन्तर्गत हैं ( वे स्वतन्त्र अलग प्रमाण नहीं हैं ), क्योंकि शब्दादि प्रमाणों से भी उसी रीति से ( व्याप्ति के बल पर ) प्रमिति की उत्पत्ति होती है, जिस प्रकार अनुमान प्रमाण से प्रमिति की उत्पत्ति होती है । जैसे कि जिस पुरुष को पूर्व में व्याप्ति ग्रहीत है, उसी पूरुष को हेतु के निश्चय और व्याप्ति के स्मरण इन दोनों से अप्रत्यक्ष अर्थ की अनुमिति होती है। उसी प्रकार शब्दादि प्रमाणों से भी अतीन्द्रिय अर्थ का ज्ञान होता है। न्यायकन्दली एतत् स्वनिश्चितार्थमनुमानम् । निश्चितमिति भावे निष्ठा, स्वनिश्चितार्थ स्वनिश्चयार्थमेतदनुमानमित्यर्थः ।। शब्दादीन्यपि प्रमाणान्तराणि सङ्गिरन्ते वादिनः, तानि कस्मादिह नोक्तानि ? इति पर्यनुयोगमाशङ्कय तेषामत्रैवान्तर्भावान्न पृथगभिधानमित्याहशब्दादीनामपीति । शब्दादीनामनुमानेऽन्तर्भावोऽनुमानाव्यतिरेकित्वम् , समानविधित्वात् समानप्रवृत्तिप्रकारत्वात् । यथा व्याप्तिग्रहणबलेनानुमानं प्रवर्तते, तथा शब्दादयोऽपीत्यर्थः। शब्दोऽनुमानं व्याप्तिबलेनार्थप्रतिपादकत्वाद् धमवत् । समानविधित्वमेव दर्शयति--यथेति । प्रसिद्धः समयोऽविनाभावो यस्य 'एतत् स्वनिश्चितार्थमनुमानम्' इस भाष्यवाक्य का 'निश्चित' शब्द 'भाव' अर्थ में निष्ठा प्रत्यय से निष्पन्न है । तदनुसार उक्त वाक्य का यह अर्थ है कि यह कथित अनुमान अपने आश्रय पुरुष में ही निश्चयात्मक ज्ञान को उत्पन्न करने के लिए है (दूसरों को समझाने के लिए नहीं)। (प्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त) शब्दादि प्रमाणों को भी अन्य दार्शनिक गण स्वीकार करते हैं कि वे शब्दादि प्रमाण इस भाष्य में क्यों नहीं कहे गये ? अपने ऊपर इस अभियोग की आशङ्का से भाष्यकार ने 'शब्दादीनामपि' इत्यादि ग्रन्थ से यह कहा है कि 'उन शब्दादि प्रमाणों का भी अनुमान में ही अन्तर्भाव हो जाता है। शब्दादि प्रमाणों का अनुमान में हो अन्तर्भाव होता है अर्थात् शब्दादि प्रमाण अनुमान से अभिन्न हैं (अनुमान ही हैं), क्योंकि (अनुमान और शब्दादि) 'समानविधि' के हैं, अर्थात् अनुमान और शब्दादि की सभी प्रवृत्तियां समान हैं। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अनुमान की प्रवृत्ति व्याप्ति के बल से होती है, उसी प्रकार शब्दादि प्रमाणों को प्रवृत्ति भी व्याप्ति के बल से ही होती है। ( इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ) जिस प्रकार व्याप्ति के बल से धूम वह्नि का ज्ञापक है, उसी प्रकार शब्द भी व्याप्ति के बल से ही अर्थ का ज्ञापन करता है, अतः (धूम की तरह ) शब्द भी For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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