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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५११ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली प्रमाणशब्दः करणव्युत्पत्तिसिद्धो न फलं विना पर्यवस्यति, अतः प्रमाणफलविभागं दर्शयति-तत्र लिङ्गदर्शनं प्रमाणमिति । तत्रानुमाने लिङ्गज्ञानं प्रमाणं प्रमीयतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या, प्रमितिः प्रमाणस्य फलमग्निज्ञानम् । यद्यपि लिङ्गलिङ्गिज्ञानयोरुत्पत्त्यपेक्षया विषयभेदस्तथापि लिङ्गज्ञानस्यापि लिङ्गिनि ज्ञानोत्पत्ती व्यापाराल्लिङ्गिविषयत्वम्, ततश्च प्रमाणफलयोन व्यधिकरणत्वम् । प्रकारान्तरमाह-अथवेति । अग्निज्ञानं प्रमाणम्, प्रमितिः प्रमाणस्य फलम् । अग्नौ गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनम्-गुणदर्शनं सुखसाधनमेतदिति ज्ञानम्, दोषदर्शनं दुःखसाधनत्वज्ञानम्, माध्यस्थ्यदर्शनं सुखदुःखसाधनत्वाभावज्ञानम्, अग्निज्ञाने सति तथाप्रतीत्युत्पादात् । 'प्रमीयतेऽनेन' इस करणव्युत्पत्ति के द्वारा प्रकृत में 'प्रमाण' शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रमाकरणरूप इसका निरूपण प्रमारूप फल के निर्देश के विना अधूरा ही रहेगा। अतः तत्र लिङ्गदर्शनं प्रमाणम्' इस वाक्य के द्वारा प्रमाण और फल का विभाग दिखलाया गया है । 'तत्र' अर्थात् अनुमान स्थल में 'लिङ्गज्ञान' ही 'प्रमाण' है चूंकि यहाँ प्रमाण' शब्द 'प्रमीयतेऽनेन' इस व्युत्पत्ति के द्वारा सिद्ध है। 'प्रमिति' अर्थात् प्रमाण का फल है अग्नि का ज्ञान । यद्यपि यह ठीक है कि (प्र.) लिङ्गज्ञान और लिङ्गी (साध्य ) का ज्ञान दोनों की उत्पत्ति भिन्न विषयक होती है, ( अतः दोनों व्यधिकरण हैं, किन्तु कार्य और कार ण को समान अधिकरण का होना चाहिये )। ( उ० ) फिर भी लिङ्गो (साध्य ) में जो (विधेयता सम्बन्ध से ) ज्ञान को उत्पत्ति होती है, उसमें लिङ्गज्ञान व्यापार ( रूप कारण ) है, अतः लिङ्गज्ञान भी लिङ्गिरूप विषय से सर्वथा असम्बद्ध नहीं है। अतः लिङ्गज्ञानरूप प्रमाण और लिङ्गि (साध्य ) ज्ञानरूप फल इन दोनों में सर्वथा विपरीतविषयत्व रूप वैयधिकरण्य की आपत्ति नहीं है। 'अथवा' इत्यादि सन्दर्भ से (प्रमाण फल विभाग का दूसरा प्रकार दिखलाया गया है। अग्नि (साध्य) का ज्ञान ही प्रमाण' है, और 'प्रमिति' अर्थात् उस प्रमाण का फल है अग्नि में गुण, दोष, और माध्यस्थ्य का ज्ञान । ( अग्नि में) 'यह सुख का साधन है' इस प्रकार का ज्ञान है 'गुण दर्शन' । एवं 'यह दुःख का साधन है' इस आकार को बुद्धि ही दोषदर्शन है। और 'न यह सुख का साधन है न दुःख का' इस प्रकार का ज्ञान ही 'माध्यस्थ्यदर्शन' है। चूंकि अग्नि ज्ञान के बाद ही उक्त गुणदर्शनादि उत्पन्न होते हैं ( अतः ये गुणदर्शनादि अग्नि ज्ञान रूप प्रमाण के फल हैं )। अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् । बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ।। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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