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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५१० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान प्रशस्तपादभाष्यम् प्रमितिरग्निज्ञानम् । अथवाग्निज्ञानमेव प्रमाणं अमितिरग्नौ गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनमित्येतत् स्वनिश्चितार्थमनुमानम् । इनमें लिङ्ग (हेतु) का ज्ञान ही (अनुमान प्रमाण है) एवं (उससे उत्पन्न) अग्नि का ज्ञान ही (फलरूबा) प्रमिति है। अथवा (कथित) अग्नि का ज्ञान ही (अनुमान) प्रमाण है। अग्नि में उपादेयत्व, हेयत्व या उपेक्षा की बुद्धि ही प्रमिति ( अनुमिति ) है । ये सभी अनुमान करनेवाले पुरुष में ही निश्चय ( अनुमिति ) के उत्पादक ( स्वार्थानुमान ) हैं । न्यायकन्दली यः पुनरत्रानुमेयः स्वर्गादिलक्षणः फलविशेषो नैतज्जातीयस्य फलस्य नियमो दृष्टो वर्णाश्रमिणां प्रवृत्तेरपि जीविकामात्रमेव प्रयोजनमिति बार्हस्पत्याः, तदर्थमाह-दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्येति । सन्त्येव तथाविधाः पुरुषा ये खलु दृष्टनिस्पृहा वानप्रस्थादिकं व्रतमाचरन्ति ; तेषां प्रवृत्तेरिदं फलानुमानमिति न सिद्धः साध्यत इत्यर्थः । 'सामान्यतोदृष्ट' कहा जाता है, चूंकि सामान्यमुखी व्याप्ति के दर्शन से ही इसकी उत्पत्ति होती है। बार्हस्पत्य' (चार्वाक) लोग (इस अनुमान में सिद्धसाधन दोष का उद्भावन इस प्रकार करते हैं कि) वर्णाश्रमियों की प्रवृत्ति से स्वर्गादि जिस प्रकार के अलौकिक फलों का यहाँ अनुमान किया जाता है, उस प्रकार के फलों का नियम नहीं देखा जाता है (क्योंकि वे अतीन्द्रिय हैं ) अतः वर्णाश्रमियों की उन प्रवृत्तियों का अपनी जीविका चलाना ही फल है, वह तो दृष्ट ही है। अतः इसमें अनुमान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इसका विषय पहिले से ही सिद्ध है। इसी सिद्धसाधन दोष को मिटाने के लिए प्रकृत भाष्यसन्दर्भ में 'दुष्टं प्रयोजन मनुद्दिश्य' यह वाक्य लिखा गया है। इस वाक्य से यह कहना अभिप्रेत है कि इस प्रकार के भी महापुरुष हैं जो वर्णाश्रमियों के लिये निर्दिष्ट वानप्रस्थादि व्रतों का आचरण करते हैं, जिनको जीविकादि दृष्ट फलों के प्रति स्नेह नहीं है । वर्णाश्रमियों की इस प्रकार की प्रवृत्तियों से फल का अनुमान ही प्रकृत में सामान्यतोदृष्ट अनुमान के उदाहरण के लिए उपस्थित किया गया है. अतः सिद्धसाधन दोष नहीं है। लिए प्रकृत में साध्यभूत वर्णाश्रमियों की सफलता को उपस्थित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह सिद्ध नहीं है; एवं प्रत्यक्ष के द्वारा उसका सिद्ध होना सम्भव भी नहीं है, क्योंकि उसके स्वर्गादि फल अतीन्द्रिय हैं। अतः प्रकृत फल से सर्वथा विपरीत अर्थात् कृषकादि के प्रत्यक्ष फलों को दृष्टान्त रूप से उपस्थित किया गया है । १. इसी प्रसङ्ग में बार्हस्पत्यों का यह श्लोक सर्वदर्शनसंग्रहादि ग्रन्थों में उल्लिखित है: For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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