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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् सामान्यानुवृत्तितोऽनुमानं सामान्यतोदृष्टम् । यथा कर्षकवणिग्राजपुरुषाणां च प्रवृत्तेः फलवत्वमुपलभ्य वर्णाश्रमिणामपि दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्य प्रवर्तमानानां फलानुमानमिति । तत्र लिङ्गदर्शनं प्रमाणं वणिक् और राजपुरुषों की सभी सफल प्रवृत्तियों को देखकर वर्णाश्रमियों की उन धार्मिक प्रवृत्तियों से भी फल का अनुमान होता है, जिन प्रवृत्तियों के कोई प्रत्यक्ष फल नहीं दीख पड़ते । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५०६ न्यायकन्दली साध्यमनुमेयं तयोरत्यन्तजातिभेदे सति, लिङ्गं चानुमेयधर्मश्च लिङ्गानुमेयधर्मों, तयोः सामान्ये लिङ्गानुमेयधर्मसामान्ये, तयोरनुवृत्तिः लिङ्गानुमेयधर्मसामान्यानुवृत्तिः, ततो लिङ्गसामान्यस्य साध्यसामान्येन सहाविनाभावाद् यदनुमानं तत् सामान्यतोदृष्टम् । यथा कर्षकवणिग्राजपुरुषाणां प्रवृत्तेः फलत्वमुपलभ्य वर्णाश्रमिणामपि दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्य प्रवर्तमानानां फलानुमानम् । कर्षकादिप्रवृत्तेः फलं दृष्ट्वा वर्णाश्रमिणां प्रवृत्तेरपि फलानुमानम् कर्षकस्य प्रवृत्तेः फलं शस्यादिकम्, वणिग्राजपुरुषस्य च प्रवृत्तेः फलं काञ्चनमणिमुक्तावाजिवारणादिकम् वर्णाश्रमिणां च प्रवृत्तेः फलं स्वर्गादिकमित्यनयोरत्यन्तजातिभेदः । अनुमानोदयस्तु प्रवृत्तित्वसामान्यस्य फलवत्त्वसामान्येनाविनाभावात् । अत चेदं सामान्यतोदृष्टमुच्यते, सामान्येन नियमदर्शनात् । एव लिङ्गानुमेयधर्म सामान्यवृत्तितोऽनुमानं सामान्यतो दृष्टम्' इस भाष्यवाक्य का विग्रह इस प्रकार है कि) लिङ्गं चानुमेयधर्मश्च लिङ्गानुमेयधम तयोः सामान्ये लिङ्गानुमेयधर्मसामान्ये, तयोरनुवृत्तिः लिङ्गानुमेयसामान्यानुवृत्तिः, ततो लिङ्गसामान्यस्य साध्यसामान्येन सहाविनाभावात् यदनुमानं तत् 'सामान्यतोदृष्टम्' । 'यथा कर्षकवणिग्राजपुरुषाणां प्रवृत्तेः फलवत्त्वमुपलभ्य वर्णाश्रमिणामपि दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्य प्रवर्त्तमानानां फलानुमानम् । अर्थात् कृषकादि की प्रवृत्तियों की सफलता को देखकर वर्णाश्रमियों की उन प्रवृत्तियों में भी सफलता का अनुमान होता है, जिन प्रवृत्तियों की उत्पत्ति के लिए वे दृष्ट (सांसारिक) फलों का अनुसन्धान नहीं करते । अभिप्राय यह है कि भूमि जोतने की किसानों की प्रवृत्ति के फल है अन्न प्रभृति, एवं बनियों की एवं राजसेवा में लगे व्यक्तियों की प्रवृत्तियों के फल है, सुवर्ण, मणि, मुक्ता, हाथी, घोड़े प्रभृति; किन्तु वर्णाश्रमियों के ( सन्ध्यावन्दनादि) प्रवृत्तियों के फल हैं स्वर्गादि । इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि साध्य और दृष्टान्त दोनों अत्यन्त विभिन्न जाति के हैं । फिर भी उक्त दृष्टान्त के द्वारा अनुमान की उत्पत्ति उस सामान्यमुखी व्याप्ति से होती है, जो प्रवृत्तिसामान्य का फलसामान्य के साथ है' । इसीलिए इस अनुमान को For Private And Personal १. अभिप्राय यह है कि 'शिष्ट जनों की सभी प्रवृत्तियाँ सफल ही होती हैं' इस सामान्य व्याप्ति के बल से ही उक्त अनुमान होता है । किन्तु इस व्याप्ति के अवधारण के
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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