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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५१३ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम न्यायकन्दली पुरुषस्य तस्य लिङ्गदर्शनप्रसिद्धयनुस्मरणाभ्यां लिङ्गदर्शनम, यत्र धमस्तत्राग्निरित्येवंभूतायाः प्रसिद्धरनुस्मरणं च । ताभ्यां यथाऽतीन्द्रियेऽर्थे भवत्यनुमानं तथा शब्दादिभ्योऽपीति । तावद्धि शब्दो नार्थं प्रतिपादयति यावदयमस्याव्यभिचारीत्येवं नावगम्यते, ज्ञाते त्वव्यभिचारे प्रतिपादयन् धूम इव लिङ्ग स्यात् । अत्राह कश्चित्-अनुमाने साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी प्रतीयते, शब्दादानुमाने को धर्मी ? न तावदर्थः, तस्य तदानीमप्रतीयमानत्वात् । शब्दो धर्मोति चेत् ? किमस्य साध्यम् ? अर्थवत्त्वं चेत् ? न पर्वतादेरिव वह्नयादिना शब्दस्यार्थेन सह संयोगसमवायादिलक्षणः कश्चित् सम्बन्धो निरूप्यते, येनायमर्थविशिष्टः साधनीयः। प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव एव हि तयोः सम्बन्धः, सोऽर्थप्रतीत्युत्तर अनुमान रूप से ही प्रमाण है । 'यथा' इत्यादि से कथित 'समान विधि' का प्रदर्शन करते हैं। 'प्रसिद्धः समयो यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस पुरुष को समय ( व्याप्ति ) पूर्व से ज्ञात है, वही पुरुष प्रसिद्धसमय' शब्द का अर्थ है । 'लिङ्गदर्शनप्रसिद्धयनुस्मरणाभ्याम्' इस वाक्य के द्वारा यह कहा गया है कि लिङ्गदर्शन ( अर्थात् पक्षधर्मता ज्ञान) और जहाँ धूम है वहाँ वह्नि भी अवश्य ही है' इस प्रकार की प्रसिद्धि' अर्थात् व्याप्ति का स्मरण, इन दोनों से उक्त प्रसिद्धसमय' पुरुष को जिस प्रकार इन्द्रियों के द्वारा अज्ञेय वस्तु का ज्ञान होता है, उसी प्रकार शब्दादि प्रमाणों से भी कथित पुरुष को ही ज्ञान होता है (अतः शब्दादि प्रमाण भी वस्तुतः अनुमान ही हैं)। शब्द तब तक अर्थ के बोध का उत्पादन नहीं कर सकता, जब तक कि अर्थ के साथ उसका अव्यभिचार ( व्याप्ति ) गृहीत न हो जाय, ज्ञात अव्यभिचार के द्वारा हो जब (धूम की तरह) शब्द भी अर्थ का ज्ञापक है, तो फिर धूम की तरह वह भी ज्ञापक लिङ्ग ( अनुमान ) ही होगा। यहाँ कोई (शब्द को अलग स्वतन्त्र प्रमाण माननेवाले ) यह विचार उठाते हैं कि अनुमान में तो साध्य रूप धर्म से युक्त धर्मी को प्रतीति होती है, किन्तु शब्द से जो अर्थ का अनुमान होगा उसमें धर्मी रूप से किसका भान होगा? अर्थ तो उस अनुमान का धर्मी (पक्ष ) हो नहीं सकता, क्योंकि वह तब तक अज्ञात है ( पक्ष को पहिले से निश्चित रहना चाहिए)। शब्द को ही यदि उस अनुमान का पक्ष माने, तो फिर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस अनुमान का साध्य कौन होगा ? अर्थवत्त्व को साध्य मानना सम्भव नहीं है, क्योंकि पर्वतादि पक्षों का वह्नि प्रभृति साध्यों के साथ जिस प्रकार का संयोगसमवायादि सम्बन्ध है, शब्द के साथ अर्थ का उस प्रकार के किसी सम्बन्ध का निर्वचन सम्भव नहीं है, जिस सम्बन्ध के द्वारा अर्थ से युक्त शब्द रूप धर्मी का साधन किया जा सके । शब्द और अर्थ में प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव सम्बन्ध ही केवल हो सकता है, किन्तु इस सम्बन्ध का ज्ञान तो शब्द से अर्थ प्रतीति के बाद ही होगा, अर्थ प्रतीति के पहिले नहीं। एवं वह्नि और धूम की तरह For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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