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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् यज्ज्ञानमुत्पद्यते तत् प्रत्यक्षं प्रमाणम्, प्रमेया द्रव्यादयः पदार्थाः, प्रमातात्मा, प्रमितिर्गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनमिति । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४७५ एवं उन विषयों में उपादेयत्व या हेयत्व अथवा उपेक्षा की बुद्धि ही प्रमिति है । न्यायकन्दली न च तत् प्रत्यक्षम्, अनन्तरभाविनः शब्दस्यैव तदुत्पत्तौ साधकतमत्वादिन्द्रि यस्यापि तत्सहकारितामात्रत्वात् । तथापि पृष्टो व्यपदिशति--अनेन समाख्यातम्, न पुनरेवमभिधत्ते -- प्रत्यक्षो मया प्रतीतं गौरयमिति तस्य व्यवच्छेदार्थ मुक्तमव्यपदेश्यमिति । प्रमितिर्गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनम् । गुणदर्शनमुपादेयत्वज्ञानम्, दोषदर्शनं हेयत्वज्ञानम्ः माध्यस्थ्यदर्शनं न हेयं नोपादेयमिति ज्ञानं प्रमितिः, पदार्थ स्वरूपबोधे सत्युपकारादिस्मरणात् । सुखसाधनत्वादिविनिश्चये सत्युपादेयादिज्ञानं भवत् पदार्थस्वरूपबोधस्यैव फलं भवति, सुखस्मरणादीनामवान्तरव्यापारत्वात् । यथोक्तम् For Private And Personal "अन्तराले तु यस्तत्र व्यापारः कारकस्य सः" इति । प्रत्यक्षरूप नहीं है, क्योंकि शब्द ही उस प्रमा का 'साधकतम' करण है, इतना ही विशेष है कि इन्द्रिय भी उस ज्ञान का सहकारिकारण है । इसीलिए पूछने पर वह व्यक्ति यह कहता है कि 'उसने कहा है कि यह गो है' वह यह नहीं कहता, मैंने प्रत्यक्ष के द्वारा देखा है कि 'यह गो है' | 'प्रमितिगुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनम्' | 'यह ग्रहण के योग्य है' इस आकार का ( उपा देयत्व) ज्ञान हो ' गुणदर्शन' है । 'यह त्याग के योग्य है' इस प्रकार का ( हेयत्व ) ज्ञान ही 'दोषदर्शन' है । 'न इसके लेने से कुछ होगा न छोड़ने से' इस प्रकार का ज्ञान ही 'माध्यस्थ्यदर्शन' है । ये ज्ञान ही (विशिष्ट ज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमाण से उत्पन्न होनेवाली) प्रमितियाँ हैं, क्योंकि उक्त हेयत्व या उपादेयत्व का ज्ञान पदार्थ के स्वरूप विषयक बोध ( विशिष्टज्ञान ) का ही फल है, सुख के स्मरण का नहीं, क्योंकि सुखादि की स्मृतियाँ उत्पादन का यह क्रम उस ज्ञान के विषय में तो बीच के व्यापार हैं । ( विशिष्ट ज्ञान से हेयत्वादि ज्ञान के है कि ) पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान ( विशिष्ट ज्ञान ) होने पर 'यह सुख ( या दुःख ) का साधन है' इस आकार का निश्चय उत्पन्न होता है । इसके बाद उन विषयों में उपादेयत्व (या हेयत्व ) की बुद्धि उत्पन्न होती है । ( उपादेयत्वादि का ज्ञान उक्त विशिष्ट ज्ञान का ही फल है, सुखादि स्मरण का नहीं) । जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि (कार्य के लिए करण की प्रवृत्ति के बाद और कार्य की उत्पत्ति से पहिले इस) मध्य में जो उत्पन्न होता है, वह तो कारक (करण) का (कार्योत्पादन में सहायक) व्यापार है ( स्वयं कारक नहीं है, अतः करण भी नहीं है ) ।
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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