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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४७६ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम्' लिङ्गदर्शनात् सज्जायमानं लैङ्गिकम् । हेतु के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान ही 'लैङ्गिक' ज्ञान ( अनुमिति ) है | न्यायकन्दली अन्ये त्वेवमाहुः -- यदर्थस्य सुखसाधनत्वज्ञानं तद् गुणदर्शनम्, उपादेयत्वज्ञानमपि तदेव । यद् दुःखसाधनत्वज्ञानं तद् दोषदर्शनं हेयत्वज्ञानमपि तदेव । यच्च न सुखसाधनं न च दुःखसाधनमेतदिति ज्ञानं तन्माध्यस्थ्यं न हेयं नोपादेयमिति ज्ञानं प्रमितिः । पदार्थस्वरूपबोधे सत्युपकारादिस्मरणात् सुखसाधनत्वादिविनिश्चये सत्युपादेयादिज्ञानं भवत् पदार्थस्वरूपबोधस्यैव फलं भवति, सुखस्मरणादीनामुपेक्षाज्ञानमपि तदेव । सर्वं चैतदभ्यासपाटवोपेतस्य व्याप्तिस्मरणमनपेक्षमाणस्य वस्तुस्वरूपग्रहणमात्रा देवाननुसंहितलिङ्गस्यापरोक्षावभासितयोत्पादादभ्यासपाटवसहकारिणः प्रत्यक्षस्य फलमिति 1 लिङ्गदर्शनात् सञ्जायमानं लैङ्गिकम् । दर्शनशब्द उपलब्धिवचनो न चाक्षुषप्रतीतिवचनः अनुमितानुमानस्यापि सम्भवात् । लिङ्गदर्शनालिङ्गविषयः संस्कारो जायते किन्त्वस्य न परिग्रहः, बुद्धयधिकारेण विशेषितत्वात् । संशब्देन सम्यगर्थवाचिना संशयविपर्ययस्मृतीनां व्युदासः । लिङ्गस्य [ गुणे अनुमान For Private And Personal एवं 'हेयत्वज्ञान' भी वही है । सुख ही मिलेगा न दुःख ही ' कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि (घटादि ) अर्थों का 'इससे सुख मिलता है' इस आकार का जो ( सुखसाधनत्व ) का ज्ञान होता है, वही गुणदर्शन है, एवं 'उपादेयत्व का ज्ञान' भी वही है । एवं ( कण्टकादि) विषयों का जो 'इससे दुःख मिलता है, इस आकार का ( दुःखसाधनत्व ) का ज्ञान होता है, वही 'दोषदर्शन' है, हवा में उड़ते हुए पत्तं प्रभृति) विषयों में जो 'इससे न इस आकार का ज्ञान होता है, उसी को 'माध्यस्थ्य दर्शन' कहते हैं । ( उपादेयत्वादि के ) ये सभी ज्ञान चूंकि अपने विषयों को अपरोक्षरूप से ही प्रकाशित करते हैं और इनकी उत्पत्ति में (अनुमिति के प्रयोजक ) लिङ्गदर्शन एवं व्याप्ति स्मरणादि की भी अपेक्षा नहीं होती है, अतः ये ( सविकल्पक ) प्रत्यक्षरूप प्रत्यक्ष प्रमाण के ही फल हैं । इतना अवश्य है कि इन ज्ञानों के उत्पन्न होने में अभ्यास जनित पटुता भी अपेक्षित होती है, अतः वह भी उन प्रमितियों का सहकारिकारण है । लिङ्गदर्शनात् सञ्जायमानं लैङ्गिकम्' इस वाक्य में प्रयुक्त 'दर्शन' शब्द का अर्थ केवल चक्षु से उत्पन्न ज्ञान ही नहीं है, किन्तु सभी ज्ञान या उपलब्धि उसके अर्थ हैं, क्योंकि अनुमान के द्वारा ज्ञात हेतु से भी अनुमान होता है ( अर्थात् अनुमितानुमान भी होता है ) । यद्यपि ( कथित ) लिङ्गदर्शन से लिङ्गविषयक संस्कार भी उत्पन्न होता है, ( जिससे लिङ्ग की स्मृति उत्पन्न होती है, अतः उसमें अनुमिति का लक्षण अतिव्याप्त हो जाएगा, किन्तु यह बुद्धि ( अनुभव ) का प्रकरण है, अतः 'प्रकरण' के द्वारा
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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