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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४७४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम [गुणे प्रत्यक्षप्रशस्तपादभाष्यम् अथवा सर्वेषु पदार्थेषु चतुष्टयसभिकर्षादवितथमव्यपदेश्य अथवा आत्मा, मन, इन्द्रिय और अर्थ इन चारों के (तीन) सम्प्रयोग से जिस किसी भी वस्तु विषयक अव्यपदेश्य अर्थात् शब्दाजन्य यथार्थ ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । एवं द्रव्यादि पदार्थ( इस प्रमाण के )प्रमेय हैं । एवं आत्मा प्रमाता है। न्यायकन्दली प्रमाणमित्युक्तं तावत् । सम्प्रति हानादिबुद्धीनां फलत्वे विशेष्यज्ञानं प्रमाण. मित्याह-अथवेति। सर्वेषु पदार्थेषु चतुष्टयसन्निकर्षात् चतुष्टयग्रहण. मुदाहरणार्थम् । द्वयसन्निकर्षात् त्रयसन्निकर्षादवितथं संशयविपर्ययरहितमव्यपदेश्य व्यपदेशे भवं व्यपदेश्यं न व्यपदेश्यमव्यपदेश्यं शब्दाजन्यं यद् विज्ञानं जायते तत् प्रत्यक्षं प्रमाणम् । संशयो ह्यनवस्थितोभयधर्मतया पदार्थमुपदर्य व्यवस्थितकधर्माणं प्रापयति, अन्यथाध्यवसायो वितथ एवेत्यवितथपदेन व्युदस्यन्ति । अव्युत्पन्नस्य सन्निहितेऽर्थे व्याप्रियमाणे चक्षुषि शब्दश्रवणानन्तरं यद् गौरिति ज्ञानं जायते तत्राक्षमपि कारणम्, अन्यथा रेखोपरेखत्वादिविशेषप्रतीत्ययोगात् । (विशिष्ट) ज्ञान ही फलरूप से अभिप्रेत है, उस समय सामान्य और विशेष का आलोचन (निर्विकल्पक) ज्ञान ही प्रमाण है । ___'अथवा' इत्यादि ग्रन्थ से अब यह कहते हैं कि हानादि बुद्धि को अगर फल मानें तो विशिष्ट ज्ञान ही प्रमाण है। 'सर्वपदार्थेषु चतुष्टयसंनिकर्षात्' इस वाक्य में 'चतुष्टय' पद का प्रयोग केवल उदाहरण दिखाने के लिए है, अतः दो के संनिकर्ष से या तीन के संनिकर्ष से भी उत्पन्न 'अवितथ' अर्थात् संशय और विपर्यय से भिन्न 'अव्यपदेश्य' (अर्थात् 'व्यपदेशे भवं व्यपदेश्यम्, न व्यपदेश्यमव्यपदेश्यम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार) शब्द से अनुत्पन्न उक्त प्रकार का ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है। जिन दो रूपों से संशय के द्वारा एक ही विषय उपस्थित होता है, बाद में उनमें से एक रूप से निश्चित अर्थ की प्राप्ति का प्रयोजक होने से उपादान बुद्धिरूप प्रमिति के करणरूप संशय प्रमाण कोटि में यद्यपि आ सकता है, किन्तु संशय उस एक वस्तु को भी अनिश्चितरूप से ही उपस्थित करता है, इस प्रकार संशय 'वितथ' ही है, अस्तिथ नहीं। 'अन्यथाध्यवसाय' अर्थात् विपर्यय तो 'वितथ है ही। इस प्रकार 'अवितथ' पद से संशय और विपर्ययरूप सभी मिथ्या ज्ञानों की व्यावृत्ति होती है । (गो में गोशब्दवाच्यत्व विषयक ज्ञानरूप) व्युत्पत्ति जिस पुरुष को नहीं है, उसका चक्षु जिस समय गोरूप पिण्ड में व्याप्त रहता है उसी समय 'अयं गौः' इस वाक्य के द्वारा जो उसे 'गौः' इस प्रकार का शाब्द ज्ञान होता है, उसकी व्यावृत्ति के लिए ही 'अव्यपदेश्य' पद दिया गया है। इस ज्ञान के प्रति यद्यपि चक्षु भी कारण है, यदि ऐसा न हो तो उस व्यक्ति को गो की छोटी बड़ी रेखाओं का ज्ञान न हो सकेगा, फिर भी वह ज्ञान For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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