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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ४. ) विभिन्न सम्बन्ध की कल्पना की धारा ही रुक जाती है। अतः इस पक्ष में न अनवस्था दोष है, और न कल्पना का गौरवदोष है । अतः समवाय का मानना आवश्यक है। अभाव अभाव पदार्थ को महर्षि कणाद के द्वारा उनके सूत्रों से स्वीकृत मानकर मैं उसका विवरण दे रहा हूँ। इस प्रकरण के अन्त में 'अभाव पदार्थ भी महर्षि कणाद को अभीष्ट था' इसकी उपपत्ति यथामति दे दी है । प्रथमतः अभाव के ( १ ) अन्योन्याभाव और ( २ ) संसर्गाभाव ये दो भेद हैं । तादात्म्य नाम का एक सम्बन्ध है, जिसके द्वारा इस सम्बन्ध के प्रतियोगी का अभेद उसके अनुयोगी में प्रतीत होता है। जैसे कि 'नरः सुन्दरः' इस बुद्धि में भासित होनेवाले तादात्म्य सम्बन्ध के द्वारा नर' और 'सुन्दर' में अभेद प्रतीत होता है। जिस अभाव की प्रतियोगिता इस तादात्म्य सम्बन्ध से नियमित हो या अविच्छिन्न हो, उस प्रतियोमिता के आश्रयीभूत वस्तु का अभाव ही अन्योन्याभाव है। इस अभिप्राय से ही तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावोऽन्योन्याभाव.' अन्योन्याभाव का यह लक्षण प्रसिद्ध है। 'अन्योन्याभाव का ही दूसरा नाम 'भेद' है। 'अन्योन्यस्मिन् अन्योन्यस्याभावः' इस ब्युत्पत्ति के अनुसार जो अभाव जिस अनुयोगी में रहे, अगर उस अनुयोगी का अभाव भी प्रथमोक्त अभाव के प्रतियोगी में रहे तो वह अभाव 'अन्योन्याभाव है। जैसे कि 'घटो न' इस आकार का अन्योन्याभाव पट में है। यतः अनुयोगीभूत इस पट का भी अन्योन्याभाव घट में है। अन्योन्याभाव के वोधक वाक्य में उसके प्रतियोगी के वोघकपद और अनुयोगी के बोधकपद दोनों ही प्रथमान्त होते हैं, जैसे कि 'घटो न पटः' । किन्तु संसर्गभाव के अभिलापक वाक्य में प्रतियोगि के बोधक पद तो प्रथमान्त होते हैं, किन्तु अनुयोगी के बोधक पद प्रायः सप्तम्यन्त होते हैं, जैसे कि 'भूतले घटो नास्ति' ।। __अन्योन्याभाव को छोड़कर और सभी अभाव संसर्गाभाव कहलाते हैं। संसर्गाभाव के द्वारा अनुयोगी में प्रतियोगी के संसर्ग का ही प्रतिषेध होता है। ‘भूतले घटो नास्ति' यहाँ पर यद्यपि भूतल में घट के निषेध का ही व्यवहार होता है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर वह प्रतिषेध भूतल में घटसंयोग का ही प्रतिषेध प्रतिपन्न होता है । क्योंकि भूतल में यतः घट का संयोग है, अतः भूतल में संयोग सम्बन्ध से घट की सत्ता है। सुतराम् भूतल में घट संयोग की सत्ता ही घटसला का नियामक है । अतः भूतल में घट संयोग की असत्ता ही घट की असत्ता की प्रयोजिका होगी। (१) प्रागभाव (२) प्रध्वंसाभाव और (३) अत्यन्ताभाव भेद से संसर्गाभाव तीन प्रकार का है। कार्य की उत्पत्ति से पहिले उपादानकारण में कार्य के जिस अभाव का व्यवहार होता है वह 'प्रागभाव' है। जैसे कि तन्तु में पट का अभाव दूध में दही का अभाव इत्यादि । यह यद्यपि अनादि है, किन्तु इसका विनाश होता है। क्योंकि पट की उत्पत्ति के बाद तन्तु में पुनः इस अभाव की प्रतीति नहीं होती है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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