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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ३६ ) उत्पन्न ही नहीं हो सकती। 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादि प्रतीतियों का नियामक यह सम्बन्ध संयोग हो नहीं सकता, क्योंकि संयोग तो अन्यतरकर्मज होगा, अथवा उभयकर्मज होगा किं वा संयोगज होगा। प्रकृत में तन्तु प्रभृति में पट प्रभृति के सम्बन्ध की उत्पत्ति उक्त कर्मादि से नहीं होती है। दूसरी बात यह है कि जिन दो वस्तुओं का संयोग होता है, उन दोनों का विभाग भी अवश्य होता है। किन्तु तन्तु प्रभृति का प्रटादि के साथ कभी विभाग नहीं होता। जब तक पट की सत्ता रहेगी, तब तक वह तन्तु के साथ सम्बद्ध ही रहेगा। अतः संयोग से भिन्न समवाय नाम का भी सम्बन्धात्मक एक स्वतन्त्र पदार्थ वैशेषिक लोग मानते हैं। वैशेषिक सम्प्रदाय से भिन्न नैयायिक और मीमांसक (प्रभाकर ) भी इसे मानते हैं। किन्तु इसके स्वरूप में कुछ मतभेद है। जैसे कि वैशेषिकगण इसे अतीन्द्रिय और नित्य मानते हैं, किन्तु नैयायिक इसे नित्य मानते हुए भी प्रत्यक्षवेद्य मानते हैं। प्रभाकर इसकी नित्यता को ही अस्वीकार करते हैं। वेदान्ती और सांख्यदर्शन के अनुयायी इसके कट्टर विरोधी हैं। ___सभी सम्बन्धों के प्रतियोगी और अनुयोगी होते हैं। तदनुसार इसके भी प्रतियोगी और अनुयोगी हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इसके प्रतियोगी हैं। एवं द्रव्य, गुण और कर्म ये तीन ही इसके अनुयोगी हैं। अर्थात् कथित द्रव्यादि पाँच पदार्थ ही समवाय सम्बन्ध से रहते हैं, और द्रव्य, गुण और कर्म में ही रहते हैं। __ संयोग सम्बन्ध को दृष्टान्त मानकर इसकी सिद्धि की गयी है। संयोग अपने अनुयोगियों और प्रतियोगियों में समवाय सम्बन्ध से रहकर ही विशिष्ट बुद्धि का सम्पादन करता है। अतः समवाय को अगर विशिष्टबुद्धि के नियामक रूप से स्वीकार करते हैं, तो यह भी निर्णय करना होगा कि वह अपने प्रतियोगी और अनुयोगी में किस सम्बन्ध से रहकर उक्त विशिष्टबुद्धियों का सम्पादन करेगा ? समवायवादियों के ऊपर इसके विरोधी इसी प्रश्न के द्वारा अपना चरम प्रहार करते हैं। विरोधियों का अभिप्राय है कि अगर समवाय के रहने के लिए किसी दूसरे सम्बन्ध की कल्पना करेंगे तो फिर उस सम्बन्ध के रहने के लिए भी दूसरे सम्बन्ध की कल्पना आवश्यक होगी, जिसका पर्यवसान अनवस्था में होगा। यदि स्वरूप सम्बन्ध से उसके प्रतियोगी और अनुयोगी में समवाय की सत्ता मानेंगे, तो फिर द्रव्यादि जिन पाँच पदार्थों का समवाय सम्बन्ध मान रहे हैं, उनका स्वरूप सम्बन्ध ही क्यों नहीं मान लेते ? इस आक्षेप का उत्तर समवायवादी वैशेषिकादि इस प्रकार देते हैं कि घटादि द्रव्यों में रूपादि गुण या थादि का अगर स्वरूप सम्बन्ध से ही रहना माने, तो फिर यह निर्णय करना कठिन होगा कि ये सम्बन्ध किसके स्वरूप हैं ? क्योंकि घटादि भी अनन्त हैं, और उनमें रहनेवाले गुण एवं क्रियादि भी अनन्त हैं । सम्बन्ध को अनन्त पदार्थ स्वरूप मानना सम्भव नहीं है। हमलोग अगर इसके लिए अलग समवाय नाम का सम्बन्ध मान लेते हैं, तो फिर इस प्रकार की कोई भी आपत्ति नहीं रह जाती है। क्योंकि वह अपने सभी प्रतियोगियों और अनुयोगियों में एक ही है, और स्वाभिन्न स्वरूप सम्बन्ध से ही है। एवं समवाय में रहनेवाला सम्बन्ध भी चूंकि समवाय रूप ही है, अतः आगे For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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