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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् श्रेय इति मिथ्याप्रत्ययः विपर्ययः शरीरेन्द्रियमनः स्वात्माभिमानः, कृतकेषु नित्यस्वदर्शनम्, कारणवैकल्ये कार्योत्पत्तिज्ञानम् हितमुपदिशत्स्वहितमिति ज्ञानम्, अहितमुपदिशत्सु हितमिति ज्ञानम् । 1 , Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir को धारण न करना चाहिए के प्रति ये 'मेरे हितू नहीं हैं, और यजुर्वेद इन तीनों के समूह रूप ) त्रयी के विरुद्ध मतवाले बौद्धादि दर्शनों में 'यही मोक्ष का कारण है' इस प्रकार का अभिमान भी विपर्यय है । शरीर अथवा इन्द्रिय या मन को आत्मा समझना भी विपर्यय है । उत्पत्तिशील वस्तुओं में नित्यत्व का ज्ञान, कारणों के न रहने कार्य की उत्पत्ति का ज्ञान, हित उपदेश करनेवालों में 'यह मेरा हितू नहीं है' इस प्रकार का ज्ञान, अनिष्ट उपदेश करनेवालों में 'यही मेरा हित है' इस प्रकार का ज्ञान, ये सभी ज्ञान विपर्यय हैं । पर भी न्यायकन्दली कृतकेषु वेदेषु नित्यत्वाभिमानो विपर्ययो मीमांसकानाम् । कारणवैकल्ये धर्माधर्मयोरभावे कार्योत्पत्तिज्ञानं सुखदुःखादिवैचित्र्यज्ञानं तच्छिष्याणां विपर्ययो लौकायतिकानाम् । प्राणिनो न हिंसितव्या मलपङ्कादिकमशुचि न धारयितव्यमित्यादिकं हितमुपदिशत्सु वेदवृद्धेषु अहितमिति विज्ञानं प्राणिहिंसापरो धर्मो मलपङ्कादिधारणमेव श्रेयस इत्यहितमुपदिशत्सु क्षपणकसंसारमोचकादिषु हितमिति विज्ञानं तच्छिष्याणां विपर्ययः । ४२६ इस व्युत्पत्ति के अनुसार कथित श्रथी से अर्थ है । त्रयी के विरुद्ध जो शाक्यादि के और ससारमोचकादि के शास्त्रों में से कोई उपदेश करते हैं, उस उपदेश प्रत्यय ही है । क्योंकि वे शास्त्र किसी है । एवं उनमें सभी बातें वर्णाश्रमियों के भी बहिर्भूत हैं । इसी प्रकार शरीर, इन्द्रिय और मन में से प्रत्येक में आत्मा का अभिमान भौ विपर्यय ही है, क्योंकि इन सबों से भिन्न रूप में आत्मा का अस्तित्व प्रमाणों से सिद्ध है । अभिन्न दर्शन ही प्रकृत 'त्रयीदर्शन' शब्द का दर्शन हैं उनमें अर्थात् बौद्ध, भिन्नक, निर्ग्रन्थक किसी में 'यह कल्याण का कारण है' ऐसा जो प्रामाण्य का ज्ञान भी ( विपर्यय रूप ) मिथ्याअतिसाधारण व्यक्ति के द्वारा ही परिगृहीत विरुद्ध ही हैं, और उनकी बातें प्रमाणों से प्रयत्न से उत्पन्न शब्दरूप वेदों में नित्यत्व का अभिमान भी न है । 'कारणों के वैकल्य' से अर्थात् धर्म और अधर्म के का ज्ञान अर्थात् सुख-दुःखादि वैचित्र्य का लौकायतिकों और उनके शिष्यों का ज्ञान भी विपर्यय ही है । प्राणियों की हिंसा न करनो चाहिए, इत्यादि प्रकार के 'हित' इस आकार का ज्ञान एवं मलपङ्कादि अशुचि वस्तुओं उपदेश करनेवाले वेदज्ञ वृद्धों 'प्राणियों की हिंसा ही परम For Private And Personal मीमांसकों का विपर्यय ही रहने पर भी कार्योत्पत्ति
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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