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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३० म्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाध्यम [गुणे विपर्ययन्यायकन्दली अत्र केचिद् वदन्ति- विपर्ययो नास्ति, कारणाभावात् । तदभावश्चेन्द्रियाणां यथार्थज्ञानजननस्वभावत्वात्। दोषवशादयथार्थमपि ज्ञानमिन्द्रियाणि जनयन्तीति चेन्न, शक्तिविघातमात्रहेतुत्वाद् दोषाणाम् । शुक्तिसंयुक्तमिन्द्रियं दोषोपहतशक्तिकं शुक्तिकात्वं न गृह्णाति, न त्वसन्निहितं रजतं प्रकाशयति दोषाणां संस्कारकत्वप्रसङ्गात् । यदि चाप्रत्यक्षमपि चक्षुरध्यक्षयति ? सर्वस्य सर्ववित्त्वं केन वार्येत ? इदं रजतमिति ज्ञानस्य शुक्तिकालम्बनमिति हि संविद्विरुद्धम । यस्यां हि संविदि योऽर्थोऽवभासते स तस्या आलम्बनम् । रजतज्ञाने च रजतं प्रतिभाति, न शुक्तिका। न चागृहीतरजतस्य शुक्तौ तद्भमः । तस्मादिदमिति शुक्तिकाविषयोऽनुभवो रजतमिति सदृशावबोधप्रबोधितसंस्कारमात्र दोषकृतं तदित्यंशप्रमोषं रजतस्मरणमिति द्वे इमे संवित्ती भिन्नविषये। धर्म है, मलपङ्कादि का धारण करना ही परमश्रेय है, इत्यादि उपदेश करनेवाले क्षपणक संसारमोचकादि में 'ये ही मेरे हितू है' इत्यादि आकार के उनके शिष्यों के ज्ञान भी विपर्यय हैं। इस प्रसङ्ग में कोई कहते हैं कि (प्र०) विपर्यय नाम का कोई ज्ञान ही नहीं हैं, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है । इन्द्रियाँ चूंकि यथार्थ ज्ञान को ही उत्पन्न कर सकती हैं, अत: सिद्ध होता है कि विपर्यय ( या मिथ्याज्ञान ) नाम की कोई वस्तु नहीं है। अगर कहें कि (उ०) दोष के साहाय्य से इन्द्रियाँ अयथार्थ ज्ञान को भी उत्पन्न कर सकती हैं ? (प्र०) ( किन्तु यह कहना भी सम्भव ) नहीं है, क्योंकि दोष कारणों की शक्ति को केवल विघटित ही कर सकते हैं, जिस पुरुष के चक्षु की शक्ति दोष के द्वारा विघटित हो गयी है. उस चक्षु का यदि शुक्तिका के साथ संयोग भी होता है, तो भी वह चक्षु शुक्तिकात्व को ग्रहण नहीं कर सकती, एवं न दूरस्थ रजत को ही प्रकाशित कर सकती है, यदि ऐसी बात हो तो फिर दोषों में संस्कार की जनकता माननी पड़ेगी, फिर सभी जीवों में आनेवाली सर्वज्ञता को आपत्ति का निवारण किस प्रकार होगा? एवं यह अनुभव के भी विरुद्ध है कि 'इदं रजतम्' इस ज्ञान का विषय शुक्तिका है, क्योंकि जिस ज्ञान में जो भासित होता है वही उसका विषय होता है। 'इदं रजतम्' इस ज्ञान में रजत ही भासित होता है, शुक्तिका नहीं। अज्ञात रजत का शुक्तिका में भ्रम भी नहीं हो सकता। अतः प्रकृत 'इदं रजतम्' इस ज्ञान में 'इदम्' यह अंश शुक्तिकाविषयक अनुभव है. एवं रजतम्' यह अंश रजत विषयक स्मृति है, जिसमें कारणीभूत अनुभव के विषय में का 'तत्ता' का अंश हट गया है। उस स्मृति की उत्पत्ति ( रजत मे रहनेवाली शुक्तिका के ) सादृश्य से उबुद्ध संस्कार से होती है । तस्मात् 'इदम्' यह अनुभवरूप और 'रजतम्' यह स्मृति रूप फलतः दो विभिन्न विषयक ज्ञान है । ( 'इदं रजतम्' यह एक अखण्ड विशिष्ट ज्ञान नहीं है )। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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