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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir एक प्रयोजक है । जिसे व्यतिरेक व्याप्ति कहते हैं। साध्याभाव के साथ नियमित रूप से रहनेवाले (साध्याभाव व्यापकीभूत ) हेत्वभाव का प्रतियोगित्व ही व्यतिरेकव्याप्ति है। है। इस व्याप्ति के शरीर में साध्यभावव्यापकीभूताभाववाला जो अंश है, उसी को विरोध दोष अपने साध्यव्यापकीभूताभाववाले अंश के द्वारा विघटित कर व्यतिरेक व्याप्ति को विघटित कर देता है । इस विरोध दोष के प्रसङ्ग में एवं विरुद्ध हेत्वाभास के प्रसङ्ग में बाद में भी अधिक परिवर्तन नहीं हुआ। जिस हेतु के प्रयोग करने पर 'प्रकरण' की अर्थात् परस्पर विरुद्ध दो पक्षों की 'चिन्ता' अर्थात् संशय ही उपस्थित हो, उन दोनों पक्षों में से किसी भी एक पक्ष का निर्णय संभव न हो, वह हेतु अगर उन दोनों पक्षों में से किसी भी एक पक्ष के निर्णय के लिए प्रयुक्त हो, तो वह हेतु 'प्रकरणसम' नाम का हेत्वाभास होगा। शब्द में अनित्यत्व के साधन के लिए नैयायिक अगर नित्यधर्मानुपलब्धि' को हेतु रूप से उपस्थित करें तो उनका यह हेतु 'प्रकरणसम' नाम का हेत्वाभास होगा। क्योंकि प्रतिपक्षी मीमांसक भी तुल्य युक्ति से शब्द में नित्यत्व साधन के 'अनित्यधर्मानुपलब्धि' हेतु को उपस्थित कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में शब्द में अनित्यत्व या नित्यत्व का निर्णय नहीं होगा, किन्तु शब्द में नित्यत्व और अनित्यत्व का संशय ही होगा । अतः उक्त 'नित्यधर्मानुपलब्धि' या 'अनित्यधर्मानुपलब्धि' रूप हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास होगा । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि उक्त विवरण के अनुसार साध्यधर्म की अनुपलब्धि ही अगर हेतु रूप से उपस्थित किया जाएगा तो वह 'प्रकरणसम' हेत्वाभास होगा। और कोई हेतु प्रकरणसम नहीं होगा। किन्तु श्री वाचस्पति मिश्र ने तात्पर्यटीका में प्रकरणसम के उक्त लक्षण को असपूर्ण ठहराया है, और प्रकरणसम को सत्प्रतिपक्ष का नामान्तर कहा है। 'सन् प्रतिपक्षो यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस हेतु का प्रतिपक्ष अर्थात् विरोधी दूसरा हेतु रहे वही हेतु सत्प्रतिपक्ष दोष से ग्रस्त है । वादी अगर किसी पक्ष में किसी साध्य की सिद्धि के लिए एक हेतु का प्रयोग करता है, उसके बाद ही कोई प्रतिवादी अगर उसी पक्ष में उसी साध्य के अभाव की सिद्धि के लिए दूसरे हेतु का प्रयोग करता है, तो फिर ये दोनों हेतु सत्प्रतिपक्ष दोष से ग्रस्त समझे जाएँगे। अगर दोनों हेतु अर्थात् हेतु और प्रतिहेतु दोनों समानबल के हों। अर्थात् दोनों में व्याप्ति और पक्षधर्मता समान रूप से रहे, तो वे दोनों सत्प्रतिपक्ष दोष से ग्रसित होंगे और दोनों ही हेतु न होकर 'सत्प्रतिपक्षित' नाम के हेत्वाभास होंगे । इसी बात को दृष्टि में रखकर 'समान बलों सत्प्रतिपक्षी' यह लक्षणवाक्य प्रचलित हैं। इन दोनों हेतुओं में से अगर एक हेतु व्याप्ति और पक्षधर्मता से युक्त होने के कारण प्रबल रहेगा और दूसरा उन दोनों से रहित होने के कारण दुबल रहेगा तो फिर वहाँ सत्प्रतिपक्ष दोष नहीं होगा। दुबल हेतु में केवल व्यमिचार या स्वरूपासिद्धि दोष होगा । और सबल हेतु से अभीष्ट अनुमिति हो जाएगी। प्राचीन नैयायिकों ने सत्प्रतिपक्ष को अनित्य दोष माना है। उन लोगों का अभिप्राय है कि जब तक कि हेतुलिङ्गकपरामर्श और प्रतिहेतुलिङ्गकपरामर्श इन दोनों For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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