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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ३२ ) में से किसी एक परामर्श के किसी भी अंश में भ्रमत्व का निश्चय नहीं हो जाता, तब तक ही उक्त दोनों हेतु सत्प्रतिपक्षित रहेंगे, उक्त भ्रमत्व निश्चय के बाद नहीं । अतः कुछ नियमित समय में ही रहने के कारण सत्प्रतिपक्ष अनित्य दोष है। इस मत में सद्धेतु स्थल में भी अगर विरोधी प्रतिहेतु का भ्रमात्मक परामर्श भी है, तो सद्धेतु भी तक तक सत्प्रतिपक्षित रहेगा, जब तक कि उक्त भ्रमात्मक विरोधी प्ररामर्श का भ्रमत्व ज्ञात नहीं हो जाता। नव्य नैयायिकों के मत से सत्प्रतिपक्ष नित्य दोष हैं। क्योंकि किसी हेतु को सत्प्रतिपक्षित होने के लिए इतना ही आवश्यक है कि प्रकृत हेतु से जिस पक्ष में साध्य का साधन इष्ट है, उस पक्ष में उक्त साध्य के अभाव की व्याप्ति से युक्त दूसरा (प्रतिहेतु) अगर विद्यमान है, तो वह पहिला हेतु सत्प्रतिपक्षित होगा। जल में वह्नि के साधक सभी हेतु सत्प्रतिपक्षित होंमे । क्योंकि वह्नि के अभाव की व्याप्ति जलत्व में है, एवं जल मेंवह्नयभावव्याप्यजलत्व सर्वदा ही विद्यमान है । अतः इस प्रकार का हेतु सदा ही सत्प्रतिपक्षित रहेगा। अतः सत्प्रतिपक्ष नित्य दोष है। महर्षि गौतम ने चौथे हेत्वाभास का नाम 'साध्यसम' कहा है। और उसके स्वरूप को समझाने के लिए 'साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः' यह सूत्र लिखा है । पहिले से जो सिद्ध नहीं रहता है वहीं 'साध्य' कहलाता है। हेतु के लिए यह आवश्यक है कि वह पहिले से "सिद्ध' रहे । अर्थात् उसमें असाध्य की व्याप्ति सिद्ध रहे । एवं ( साध्यव्याप्ति से युक्त ) हेतु स्वयं पक्ष में सिद्ध रहे । किन्तु जिस अनुमान का हेतु पहिले से सिद्ध नहीं है, वह हेतु साध्य के समान ही है, अतः उसे 'साध्यसम' कहा गया है। अगर कोई 'छाया द्रव्य है क्योंकि वह गतिशील है' इस प्रकार से अनुमान का प्रयोग करे तो यहाँ 'गतिशीलत्व' हेतु 'साध्यसम' हेत्वाभास होगा। क्योंकि 'छाया में गति है' यही पहिले से सिद्ध नहीं है । अतः छाया में द्रव्यत्व की सिद्धि की तरह छाया में गति की भी सिद्धि अपेक्षित है। _ 'साध्यसम' हेत्वाभास को ही नव्य नैयायिकों ने 'असिद्ध' शब्द से व्यक्त किया है । एवं ( १) आश्रयासिद्ध (२) स्वरूपासिद्ध और ( ३) व्याप्यत्वासिद्ध इसके ये तीन भेद किये हैं। जिसमें साध्य की सिद्धि अभिप्रेत हो उसे पक्ष कहते हैं । पक्ष को ही 'आश्रय' भी कहते हैं । आश्रय अगर सिद्ध नहीं रहेगा तो अनुमान कहाँ होगा ? अगर कोई साधारण फूलों के दृष्टान्त से आकाशकुसुम में गन्ध का अनुमान करे तो वहाँ के सभी हेतु आश्रयासिद्ध होंगे । एवं स्वर्णमय-पर्वत में अगर कोई वह्नि का अनुमान करे तो वहाँ के भी सभी हेतु आश्रयासिद्ध होंगे । यद्यपि पर्वत असिद्ध नहीं है, किन्तु पर्वत में स्वणमयत्व असिद्ध है । अतः स्वर्णमयपर्वतरूप विशिष्टपक्ष भी असिद्ध है। हेतु यदि कथित पक्ष में विद्यमान न रहे तो वह हेतु 'स्वरूपासिद्ध' हेत्वाभास होगा । जैसे कि जल में कोई धूम हेतु से भी वह्नि का अनुमान करना चाहेगा तो वहाँ का धूम हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास होगा। क्योंकि जल रूप पक्ष में धूम हेतु नहीं है । भाष्यकार ने जो असिद्ध का उदाहरण दिया है, वह स्वरूपासिद्ध का ही उदाहरण For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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