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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ३० ) प्रकार के हेतुओं में भी व्याप्ति नहीं रह सकती । फलतः व्यभिचार रहेगा । किन्तु कथित साधारण या असाधारण व्यभिचार यहाँ संभव नहीं है । अतः 'अनुपसंहारी' नाम का अतिरिक्त ही व्यभिचार दोष माना गया है । जिससे उक्त हेतु 'अनुपसंहार' नाम का तीसरा सव्यभिचार होगा । अतः तत्त्वचिन्तामणिकार ने अपने सव्यभिचार प्रकरण में लक्षण करने से भी पहिले 'सव्यभिचारस्त्रिविधः संधारणासाधारणानुपसंहारिभेदात्' यह विभाग वाक्य ही लिखा है । यद्यपि सूत्र-भाष्यादि में इस त्रैविध्य की चर्चा नहीं है I फलितार्थ यह है कि सव्यभिचार ( १ साधारण ( २ ) असाधारण ( ३ ) और अनुपसंहारी भेद से तीन प्रकार का है। इनमें जो हेतु साध्य और साध्याभाव दोनों के साथ रहे. उसे साधारण कहते हैं। जैसे कि 'धूमवान् वह्नेः' का वह्नि हेतु । वह्नि हेतु धूम ' के साथ भी महानसादि में है, और धूमाभाव के साथ भी तप्त अयःपिण्डादि में है । जो हेतु केवल पक्ष में ही रहे, सपक्ष या विपक्ष में जो न रहे उस हेत को 'असाधारण ' सव्यभिचार कहते हैं । जैसे कि 'शब्दो नित्यः शब्दत्वात्' इस अनुमान का शब्दत्व हेतु । यह शब्दत्व हेतु केवल शब्द रूप पक्ष में ही है । न आकाशादि सपक्षों में है, और न घटादि विपक्षों में । अतः शब्दत्व हेतु 'असाधारण' सव्यभिचार है । जिस धर्म का सभी वस्तुओं में केवल अन्वय ही रहे, व्यतिरेक या अभाव किसी भी वस्तु में न रहे उस धर्म को केवलान्वयि धर्म कहते हैं, केवलान्वयि धर्म जिस पक्ष का विशेषण ( अवच्छेदक ) हो उस पक्ष के अनुमान का हेतु भी 'व्यभिचारी' है, क्योंकि इस अनुमान में भी कोई सपक्ष नहीं हो सकता, चूँकि सभी पदार्थ पक्ष के अन्तर्गत आ जाते हैं । अतः उक्त अनुमान के हेतु का व्यापकत्व साध्य में रहने पर भी व्यापकीभूत वह साध्य किसी सपक्ष में हेतु के साथ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई सपक्ष ही नहीं है । जो हेतु साध्य के बदले साध्याभाव के साथ ही नियमित रूप से रहे, उस हेतु को 'विरुद्ध' हेत्वाभास कहते हैं । अर्थात् हेतु का साध्याभाव के साथ नियमित रूप से रहना 'विरोध' नाम का हेतुदोष है जिस दोष से युक्त हेतु 'विरुद्ध' नाम का हेत्वाभास है । 'वि' अर्थात् विशेष रूप से साध्य की अनुमिति को जो 'रुद्ध' करें, अर्थात् साध्य के साथ नियत रूप से न रहकर साध्यभाव के साथ ही नियमित होकर व्यतिरेकव्याप्ति को विघटित करते हुए जो अनुमिति को विघटित करे, वही विरुद्ध नाम का हेत्वाभास है । नियमतः साध्य के साथ ही रहनेवाले हेत्वभाव का प्रतियोगित्व ही 'विरोध' दोष है, इस विरोध दोष से युक्त हेतु ही 'विरुद्ध' नाम का हेत्वाभास है । जैसे कि 'हृदो वह्निमान् जलात्' इस अनुमिति का जल हेतु 'विरुद्ध' हेत्वाभास है, क्योंकि जल रूप हेतु वह्न रूप साध्य के साथ न रहकर वह्नि के अभाव के साथ ही नियमित रूप से रहता है । अतः जल रूप हेतु का अभाव वह्नि का व्यापकीभूत अभाव है, इस अभाव का प्रतियोगित्व कथित जल हेतु में है । जिस प्रकार हेतु के साथ साध्य का नियमित रूप से रहना व्याप्ति का प्रयोजक है, उसी प्रकार साध्याभाव के साथ हेत्वभाव का नियमित रूप से रहना भी व्याप्ति का For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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