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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३५६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संयोग प्रशस्तपादभाष्यम् करणगतात् संयोगादितरेतरका कार्यगतौ संयोगौ युगपदुत्पद्यते। रूपादि की उत्पत्ति होती है, उसी समय दोनों द्वयणकों के कारण और अकारण ( अर्थात् जलीय द्वयणुक के कारण जलीय परमाणु और अकारण पार्थिव परमाणु एवं पार्थिव द्वयणुक के कारण पार्थिव परमाणु एवं अकारण जलीय परमाणु इन ) दोनों में रहनेवाले एक ही संयोग से एक ही समय कार्य और अकार्य ( अर्थात् पार्थिव परमाणु के कार्य पार्थिव द्वयणुक, और पार्थिव परमाणु के अकार्य जलीय द्वयणुक इन दोनों के ) संयोग एवं जलीय परमाणु के कार्य जलीय द्वयणुक एवं अकार्य पार्थिव परमाणु, इन दोनों के संयोग, इन दोनों संयोगों की उत्पत्ति होती है। ( इस प्रकार एक संयोग से दो संयोगों न्यायकन्दली दितरेतरकार्याकार्यगतौ संयोगौ युगपदुत्पद्यते । इतरेतरे पार्थिवाप्ये द्वयणुके, तयोः कारणाकारणे परस्परसंयुक्तौ पार्थिवाप्यपरमाणू, पार्थिवः परमाणुरितरस्य पार्थिवद्वयणुकस्य कारणमितरस्याप्यस्य द्वयणुकस्याकारणम् । एवमाप्यपरमाणुरितरस्याप्यद्वयणुकस्य कारणमितरस्य पार्थिवद्वयणुकस्याकारणम् । तयोः संयोगाद् इतरस्य पार्थिवपरमाणोर्यत् कार्य पाथिवं द्वयणकमकार्यश्चाप्यः परमाणुः, तयोः संयोगो भवति । एवमितरस्याप्यपरमाणोर्यत् कार्यमाप्यं व्यणुकमकार्यस्तु पार्थिवः परमाणुस्तयोरपि संयोगो भवतीत्येकस्माद् द्वयोरुत्पत्तिः । से दोनों के कार्य (अर्थात्) पार्थिव परमाणु के कार्य पार्थिव द्वयणुक और जलीय परमाणु के कार्य (जलीय द्वथणुक) एवं दोनों परमाणुओं के अकार्य (अर्थात् पार्थिव परमाणु के अकार्य जलीय द्वथणुक एवं जलीय परमाणु के अकार्य पार्थिव द्वयणुक) इन दोनों के एक ही संयोग की उत्पत्ति होती है। 'इतरेतर' शब्द से परस्पर सम्बद्ध पार्थिव द्वथणुक और जलीय द्वथणुक, ये ही दोनों अभिप्रेत हैं। इन दोनों के कारण और अकारण अर्थात् पार्थिव घणुक के कारण पार्थिवपरमाणु और अकारण जलीय परमाणु एवं जलीय द्वथणुक के कारण जलीय परमाणु और अकारण पार्थिव परमाणु, कथित कारण और अकारण इन दोनों के संयोग से 'इतर' अर्थात् पार्थिव परमाणु के कार्य पार्थिव द्वथणुक, और अकार्य जो जलीय परमाणु, इन दोनों के संयोग की उत्पत्ति होती है। एवं 'इतर' जो जलीय परमाणु के कार्य जलीय द्वथणुक, एवं अकार्य जो पार्थिव परमाणु, इन दोनों के संयोग की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार एक हो संयोग से (संयोगज) संयोगों को उत्पत्ति होती है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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