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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या न्यायकन्दली विशेषात् । तां तु सारूप्यमाविशत् सरूपयितं घटयेदिति । अत्रोच्यतेसाकारेण ज्ञानेन किमर्थोऽनुभूयते ? किं वा स्वाकारः ? किमुतोभयम् ? न तावदुभयम्, नीलमेतदित्येकस्यैवाकारस्य सर्वदा संवेदनात् । अर्थस्य च ज्ञानेनानुभवो न युक्तः, तस्य स्वरूपसत्ताकाले ज्ञानानुत्पादाज्ज्ञानकाले चातीतस्य वर्तमानतावभासायोगात् । ज्ञानसहभाविनः क्षणस्यायं वर्तमानतावभास इति स्वसिद्धान्तश्रद्धालुतेयम्, तस्य तदग्राह्मत्वात् । कश्चात्र हेतुर्यद्विज्ञानं नियतमर्थ बोधयति न सर्वम् ? नहि तयोरस्ति तादात्म्यम्, तदुत्पत्तिश्च न व्यवस्थाहेतुरित्युक्तम् । तदाकारता नियमहेतुरिति चेत् ? किमित्येको नीलक्षणः समानाकारं नीलान्तरं न गृह्णाति ? ग्राहकत्वं ज्ञानस्यैव स्वभावो नार्थस्येति चेत् ? तथाप्येकं नीलज्ञानं सर्वेषां नीलक्षणानां ग्राहकं स्यात, तदाकारत्वाविशेषात् । तदुत्पत्तिसारूप्याभ्यां स्वोत्पादकस्यैवार्थक्षणस्य ग्राह्यता न सर्वेषामिति से वस्तुओं का ज्ञान सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सभी वस्तुओं में समान रूप से है । किन्तु उसमें विषयाकारता का प्रवेश होने पर उसी से विषयों का अवभास होता है । (प्र०) इस प्रसङ्ग में मेरा कहना है कि आकार से युक्त ज्ञान के द्वारा अर्थ की अनुभूति होती है ? या उसके अपने आकार का ही अनुभव होता है । अथवा आकार एवं वस्तु दोनों का ही अनुभव होता है ? दोनों का अनुभव तो उससे होता नहीं, क्योंकि 'यह नील है' इससे एक ही आकार का अनुभव होता है। एवं ज्ञान के द्वारा अर्थ का अनुभव सम्भव भी नहीं है, क्योंकि अर्थ के अस्तित्व के समय ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। एवं ज्ञान के अस्तित्व के समय वस्तुएँ अतीत हो जाती है, अतः वर्तमानत्व विषयक वस्तुओं की 'घटोऽस्ति' इत्यादि प्रतीतियाँ असम्भव हैं। 'घटोऽस्ति' इत्यादि आकार की प्रतीतियों में भासित होनेवाला वर्तमानत्व घटादि अर्थों का नहीं, किन्तु ज्ञान के साथ उत्पन्न होनेवाले क्षण का है, यह कहना केवल अपने सिद्धान्त में अत्यन्त श्रद्धा प्रकट करना है क्योंकि वर्तमानत्व उस ज्ञान का ग्राह्य ही नहीं है। एवं इसमें भी कारण कहना पड़ेगा कि एक ज्ञान किसी नियत विषय को ही ग्रहण करे, सभी विषयों को नहीं । पहिले कह चुके हैं कि वस्तु विज्ञान से अभिन्न नहीं है। यह भी कह चुके हैं कि विज्ञान की उत्पत्ति ( यह ज्ञान इसी विषय का बोधक है, दूसरे ज्ञान का नहीं, इस ) व्यवस्था का कारण नहीं है । (उ०) तदाकारता ही ( अर्थात् जिसमें जिस अर्थ की आकारता है, फलतः जो ज्ञान यदाकारक है वही उसका नियामक है ) इस नियम का कारण होगी। (प्र०) तो क्या एक नील क्षण ( का ग्राहक विज्ञान ) समान आकार के दूसरे नील को भी ग्रहण नहीं करता है ? (उ० ) ग्राहकत्व अर्थात् अर्थ को ग्रहण करना तो ज्ञान का स्वभाव है, अर्थ का नहीं। (प्र.) फिर भी एक ही नील विज्ञान सभी मील क्षणों का ग्राहक होगा, क्योंकि सभी नील क्षणों के आकार में तो कोई अन्तर नहीं है। (उ० ) वस्तुओं की उत्पत्ति एवं ( ज्ञान में) उसका आकारता रूप सादृश्य For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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