SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली 1 इन्द्रियसमनन्तरप्रत्यययोरपि ग्राह्यतापत्तिः । ताभ्यामपि हि ज्ञानमुत्पद्यते, बिर्भात च तयोर्यथास्वं विषयग्रहणप्रतिनियमं बोधात्मकं च सारूप्यम् । अथ मतं यदेतद्विषयग्रहणप्रतिनियतत्वमिन्द्रियसारूप्यं विज्ञानस्य यदपि समनन्तरप्रत्ययसारूप्यं बोधात्मकत्वम्, तदुभयमपि सर्वज्ञानसाधारणम्, असाधारणं तु विषयसारूप्यम्, नीलजे एव नीलज्ञाने नीलाकारस्य संभवात् । यश्चासाधारणो धर्मः स एव नियामक इत्येतावता विशेषेण ज्ञानमर्थं गृह्णाति नेन्द्रियसमनन्तरप्रत्ययाविति । तदप्यसारम्, समानविषयस्य समनन्तरप्रत्ययस्य ग्रहणप्रसङ्गात् । यो विज्ञाने नीलाद्याकारमर्पयति स एव तस्य ग्राह्यः न च धारावाहिकविज्ञाने समनन्तरप्रत्ययान्नीलाद्याकारस्योत्पत्तिः, किन्त्वर्थादस्यैव, तदुत्पत्तावन्वयव्यतिरेकाभ्यां सर्वत्र सामर्थ्योपलब्धेर्बोधाकारोत्पत्तावेव बोधस्य सामर्थ्यावगमादिति चेत् ? नीलाद्याकार समर्पको ग्राह्म इति कस्येयमाज्ञा ? नान्यस्य कस्यचित्, तस्यैव तु ग्राह्यत्वस्वभावनियमो नियामकः । एवं चेत् स्वभावनियमादेव नियमोsस्तु, Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६६ For Private And Personal इन दोनों से अर्थ का ग्रहण होता है, अतः ज्ञान अपने उत्पादक अर्थक्षण का ही ग्राहक है और किसी का नहीं । ( प्र० ) तो फिर इन्द्रिय और समनन्तरप्रत्यय मन ) इन दोनों में भी ग्राह्यता आएगी, क्योंकि वे दोनों मिलकर ज्ञान का उत्पादन करते हैं । एवं ज्ञान उन दोनों से ही क्रमशः विषयग्रहण का नियम और बोधात्मकत्वरूप सादृश्य का लाभ करता है । अगर यह कहें कि ( प्र० ) ज्ञान में नियतविषयग्राहकत्व इन्द्रिय का सादृश्य एवं बोधात्मकत्वरूप समनन्तरप्रत्यय ( मन ) का सादृश्य है, तो फिर ये दोनों तो सभी ज्ञानों में समान रूप से हैं । ज्ञान में विषय से ही असाधारण्य होता है, क्योंकि नीलरूप विषयजन्य ज्ञान में ही नीलाकारता सम्भव है । असाधारण धर्म ही नियामक होता है, इसी विशेष के कारण ज्ञान ( अपने जनकों में से ) विषय को ही ग्रहण करता है, इन्द्रिय और समनन्तरप्रत्यय ( मन ) को नहीं, किन्तु इस कथन में भी कुछ तत्त्व नहीं है, क्योंकि ( नीलादिविज्ञान से नीलादि वस्तुओं की तरह समान नीलादि विषयक ) समनन्तरप्रत्यय के ग्रहण की आपत्ति तब भी होगी । ( उ० ) जो वस्तु विज्ञान में नीलादि विषय के आकार का सम्पादन करती है, वही वस्तु उस विज्ञान की ग्राह्य है। धारावाहिक ज्ञान में भी समनन्तरप्रत्यय से नीलादि आकार की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु नीलादि अर्थों से ही होती है, क्योंकि आकार के प्रति अर्थ ही कारण है, चूँकि उसी के साथ आकार का अन्वय और व्यतिरेक है । एवं बोध में बोधाकार की उत्पत्ति का सामर्थ्य भी देखा जाता है । ( प्र० ) यह किसकी आज्ञा है कि विज्ञान में जो सम्पादक हो वही विज्ञान का ग्राह्य हो ? ( उ० ) विज्ञान के साथ विषय ग्रहण का जो नियम है, वही उक्त नियम का सम्पादक है । किसी की आज्ञा से यह नियम नहीं बनाया गया है | ( प्र० ) फिर स्वभाव के नियम से ही उक्त नियम मानिए । ज्ञान नीलादि आकार का
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy